जिसको आत्मा का विचार नहीं और परभव
का खयाल नहीं, ऐसा व्यक्ति परोपकार की चाहे जैसी
बात करे, वह सच्चा परोपकारी नहीं बन सकता।
इस भव के सुख के लिए जिसको हिंसक पशुओं का भी विनाश करने का मन होता है, वह आदमी दुनिया में चाहे जितने भी ऊँचे पद पर चढा हो, तत्त्वज्ञानी महात्माओं की दृष्टि से तो वह अधम कोटि
का ही है। आत्मा के सुख का जिसको खयाल नहीं और पौद्गलिक सुख, यही जिसका साध्य हो, वैसी
आत्माओं का जीवन तो जगत के जीवों के लिए केवल श्रापभूत ही है। ऐसी आत्माओं को उसके
पूर्व के पुण्य योग से प्राप्त हुई बुद्धि, शक्ति
और सामग्री जगत के जीवों के लिए एकान्ततः अकल्याण का कारण बनती है और इससे ऐसे
आत्माओं का स्वयं का भविष्य भी अंधकारमय बन जाता है।
मनुष्य मात्र को यह विचार करना
चाहिए कि हमको जिस प्रकार हमारा जीवन प्रिय है, उसी
प्रकार जगत के सभी जीवों को भी उनका जीवन प्रिय है। जगत में कोई जीव दुःखी नहीं
होना चाहता, सभी सुखी होने की इच्छा रखते हैं।
दुःख को दूर करने का और सुखी बनने का एक ही मार्ग है और वह है- हम दूसरे को दुःख न
दें और जहां तक संभव हो सके दूसरे को सुख पहुंचाने का प्रयास करें। हमें दुःख
प्रिय नहीं है तो दूसरे को दुःखी करने, दुःख पहुंचाने से दूर
रहना और हमें सुख अच्छा लगता है तो कम से कम किसी दूसरे का सुख नहीं छीनना। दूसरे
को दुःख देना या किसी का सुख छीनने का प्रयास करना, यह
तो अपने ही हाथों से अपने लिए दुःख उत्पन्न करना है।
किन्तु, आत्मभाव
के बिना पौद्गलिक सुखों की लालसा में पडी आत्माएं इस बात का विचार नहीं करती है।
ऐसी आत्माएं तो एकान्ततः कल्याण करने वाली बातों का उपदेश देने वाले महात्मा
पुरुषों का भी अवसर पाकर तिरस्कार करने से चूकती नहीं है। कारण कि उनको सच्चे
महात्माओं का महात्मापन खटकता रहता है। दुर्जन लोग सज्जन पुरुषों के अकारण ही
शत्रु होते हैं। कारण कि सज्जन पुरुषों द्वारा आचरण की जाती सत्प्रवृत्तियां
दुर्जन लोगों को संसार के सामने आचरण से स्वतः दुर्जनरूप घोषित कर देती है और
इसीलिए सज्जन पुरुष दुर्जनों को खटकते हैं और वे अपने मन में सज्जनों के प्रति वैर
पालते हैं।
सच्ची बात यह है कि ‘पौद्गलिक स्वार्थ की रसिकता ही भयंकर है’। पौद्गलिक स्वार्थ की प्रीति ज्यों-ज्यों बढती जाती
है, त्यों-त्यों सद् वृत्ति और सदाचार
दोनों का नाश होता जाता है। पौद्गलिक स्वार्थ की अत्यंत प्रीति आदमी को आदमी नहीं
रहने देती, अपितु शैतान बना देती है। इसलिए
आत्म-कल्याण की अभिलाषी आत्माओं को स्वयं में रही हुई पौद्गलिक स्वार्थवृत्ति को
जडमूल से ही समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील बनना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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