परम उपकारी सहस्रावधानी आचार्य श्री मुनिसुन्दरसूरिजी महाराज ने दो प्रकार के
भव्य जीवों को यथाविधि धर्मोपदेश के योग्य बतलाया है। जो जीव स्वभाव से भव्य नहीं
होते, वे तो धर्मोपदेश के योग्य होते ही नहीं, परन्तु स्वभाव से भव्य जीवों
में भी जिनका संसार काल एक पुद्गल परावर्तकाल से अधिक है, वे
जीव भी धर्मोपदेश के योग्य नहीं गिने जाते। जिन भव्य जीवों का संसार काल एक पुद्गल
परावर्तकाल से अधिक शेष नहीं है, अर्थात जो भव्य जीव चरमावर्तकाल को
प्राप्त हैं,
वे जीव ही धर्मोपदेश के योग्य हैं। चरमावर्त को प्राप्त जीव
भी दो प्रकार के होते हैं। एक प्रकार तो सम्यग्दर्शन गुण को अप्राप्त जीवों का है
और दूसरा प्रकार सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त जीवों का है।
चरमावर्तकाल को प्राप्त भव्य जीवों का संसारकाल जब तक अर्धपुद्गल परावर्तकाल
से अधिक शेष रहता है,
वहां तक तो वे जीव भी सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त नहीं कर
सकते। इस प्रकार केवल चरमावर्तकाल को प्राप्त दो प्रकार के भव्यात्मा ही यथाविधि
धर्मोपदेश के योग्य हैं। ऐसा जब प्रतिपादन करने में आता है, तब
ऐसा प्रश्न उपस्थित होना असंभवित नहीं कि चरमावर्तकाल को प्राप्त जीव मिथ्यादृष्टि
हो या सम्यग्दृष्टि हो,
वे अधिक से अधिक एक पुद्गलपरावर्तकाल में नियम से सिद्धि पद
को प्राप्त होने वाले हैं तो फिर उन जीवों को यथाविधि धर्मोपदेश की क्या आवश्यकता
है? ऐसे प्रश्न का स्पष्टीकरण करते हुए परम उपकारी सहस्रावधानी आचार्यदेव श्री
मुनि सुन्दरसूरीश्वरजी महाराज ने जयानंद केवली चरित्र में फरमाया है कि ‘श्री
सिद्धिपद को देने वाली जो सामग्री है, उस सामग्री को पाए बिना भव्य
जीव भी सिद्धिपद को नहीं पा सकते हैं। जो भी भव्यात्मा सिद्धिपद को प्राप्त करते
हैं, वे श्री सिद्धिपद की समग्र सामग्री को प्राप्त करके ही श्री सिद्धिपद को
प्राप्त करते हैं।’
ऐसा कहकर श्री सिद्धिपद को देनेवाली सामग्री क्या है, इसका
वाचकों को ज्ञान कराने के लिए परम उपकारी चरित्रकार ने फरमाया है कि ‘मनुष्यभव, आर्यदेश, श्रुति
और श्रद्धा आदि लक्षण वाली यह सामग्री है और इस सामग्री में भी धर्मश्रद्धा विशेष
रूप से सुदुष्प्राप्य है। यद्यपि आर्यदेशादि सामग्री सहित मनुष्यत्व की प्राप्ति
होने पर भी सद्गुरुओं का योग प्राप्त होना और सद्गुरुओं का योग प्राप्त होने पर भी
धर्म श्रवण की प्राप्ति होना, इस जीव के लिए अति दुर्लभ ही है, परन्तु
धर्म श्रद्धा की प्राप्ति होना तो इससे भी अतिशय दुर्लभ है। क्योंकि मनुष्यभव से
लेकर धर्मश्रवण तक की सामग्री तो अभव्य जीवों तथा दुर्भव्य जीवों को भी प्राप्त हो
सकती है, परन्तु धर्मश्रद्धा की प्राप्ति तो मात्र भव्यात्माओं को ही हो सकती है; और
वह भी ऐसे भव्यात्माओं को ही प्राप्त हो सकती है, जिनका संसार काल एक
पुद्गल परावर्त जितने काल से तो अधिक नहीं ही हो।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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