बुधवार, 26 नवंबर 2014

अंतःकरण श्री जिनधर्म-वासित बना रहे!


मेरा अंतःकरण श्री जिनधर्म के बोधि-भाव से सुवासित रहे! इसके लिए यदि मुझे किसी का दास बनना पडे तो भी मुझे उसकी चिन्ता नहीं, दरिद्र होना पडे तो उसकी भी परवाह नहीं! धर्म से रहित होकर चक्रवर्तित्व भी नहीं चाहिए और धर्मसहित रहने के लिए दास और दरिद्र बनना पडे तो भी मुझे स्वीकार है! चक्रवर्तित्व का लोभ नहीं और दास-दरिद्रता का क्षोभ नहीं। एकमात्र इच्छा यही है कि अंतःकरण श्री जिनधर्म-वासित बना रहे! भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म का भाव मिला तो सब कुछ मिल गया और यदि यह न मिला तो कुछ नहीं मिला। यह थी भावना 18 देशों के महाराजा कुमारपाल की।

बोधि और जिन धर्म की प्राप्ति की महत्ता को समझने वालों के हृदय की इच्छा कैसी होती है, यह समझे हैं न आप? आपको भी ऐसी ही इच्छा है न? यदि भगवान द्वारा प्ररूपित एकमात्र धर्म मिलता हो तो उसके लिए सब सुखों का भोग देने की और चाहे जैसे दुःख को सहन करने की तैयारी है न? कभी दुःख की अवस्था में, कर्मजन्य मानसिक पीडा आदि में, ‘यह मिले तो अच्छा, यह मिले तो अच्छा’, ऐसा क्षणभर के लिए भाव आ जाता होगा, परन्तु पीछे ऐसा भाव आता है न कि यह कैसा पाप है? यह मिले तो भी क्या? क्या यह मेरे सब दुःख को दूर कर देगा? अतः चाहिए तो एकमात्र बोधि!

श्री जयवीयरायसूत्र को बोलते हुए आप भवे-भवे तुम्ह चलणाणंमांगते हैं न? क्या कहकर आप यह मांगते हैं? ‘भगवन! मैं जानता हूं कि आपके शासन में कुछ भी मांगने का निषेध किया गया है, तो भी मैं इतना तो मांगता हूं कि भव-भव में मुझे आपके चरणों की सेवा प्राप्त हो!इतना तो मैं आपके पास अवश्य मांगता हूं।ऐसा बोलते हैं न? अर्थात् आपको राज्य मिले, चक्रवर्तित्व मिले, देवलोक मिले, देवेन्द्रत्व मिले, अरे अहमिन्द्रत्व मिले तो भी वस्तुतः आपके लिए उसकी कोई कीमत नहीं! कीमत है केवल भगवान के चरणों की सेवा मिले, इसकी। अन्य कुछ मिले या न मिले, परन्तु यह तो अवश्य मिलना ही चाहिए, ऐसा आपके मन में है न? भव-भव में श्री जिन के चरणों की सेवा किसको मिलती है? बोधिलाभ वाले को ही मिलती है न? आप भगवान के पास यही मांगते हैं न? ऐसा आप अन्य रचित बोलते हैं या स्वयं ऐसी याचना करते हैं? आपको यह बात ज्ञात हो चुकी है कि जो जीव बोधि को प्राप्त करता है, वह जीव कभी संसार में रंजित नहीं होता। क्योंकि सारे संसार के प्रति और संसार के सब पदार्थों के प्रति उसके हृदय में निर्ममत्व प्रकट होता है। उस निर्ममभाव के प्रताप से वह मुक्तिमार्ग की आराधना, बिना किसी विघ्न-बाधा के कर सकता है।इस प्रकार सम्यग्दृष्टि की इच्छा एकमात्र मुक्तिमार्ग की आराधना करने की ही होती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें