‘हमें
राज्य, श्रीमंताई आदि कुछ नहीं चाहिए। चाहिए, एक मात्र भगवान के शासन का
भिक्षुकपन।’ आपकी मनोवृत्ति यदि इस प्रकार की बन जाएगी और ऐसी स्थिति में आपके पुण्योदय से
आपको राज्यादिक की प्राप्ति हो जाएगी, तो आपके द्वारा शासन की
प्रभावना अच्छी हो सकेगी।
‘आपको
संसार के सुख की सामग्री मिले’, ऐसा मैं नहीं कहता, परन्तु
आपको जब-जब संसार के सुख की सामग्री मिले, तब-तब यदि आपका मन उसकी इच्छा
न करे, तो वह सामग्री आपके लिए और अनेकों के लिए लाभ का कारण बन सकती है। जब मन बराबर
इनकार करता हो,
उस समय जो अधिक सामग्री मिले तो अधिक सदुपयोग हो सकता है न? सदुपयोग
के लिए भी लेने की बात नहीं, परन्तु मिले तो सदुपयोग करने की बात है।
विवेक से धर्म की आराधना करने वालों को तो जो पुण्यबंध होता है, वह
ऐसा होता है कि उनको संसार के सुख की सामग्री भी अनुपम कोटि की मिलती है। श्री
तीर्थंकरादिक को पुण्य के योग से बहुत समृद्धि मिलती है। वह समृद्धि ऐसी होती है
कि उसकी तुलना नहीं की जा सकती। इस समृद्धि में उन तारकों आदि की निर्ममता भी ऐसी
होती है कि उसकी भी तुलना नहीं की जा सकती। ये सब चीजें ऐसी हैं कि ये जिस समय
मिलें, उस समय बोधि हो तो बहुत अच्छा परिणाम आ सकता है।
जिस समय मन कहता हो कि ‘मुझे नहीं चाहिए’, उस
समय संसार की सुख सामग्री मिले तो वह बहुत उपकारक हो सकती है, परन्तु
जिस समय मन ‘यह चाहिए,
वह चाहिए’ करता हो, उस समय जो सुख सामग्री
मिले, तो क्या खराबी वह नहीं करेगी, यह नहीं कहा जा सकता। आप देख रहे हैं कि
मांग-मांग कर राज्य लेने वाले आज कैसे बन गए हैं? वे कहते हैं कि ‘बहुत
सहन किया है हमने आज तक;
अब हमारा लेने का समय आया है। इसलिए तुम चाहो जो करो, परन्तु
हमें तो दो’,
ऐसा कहने वाले हैं न?
इसलिए ऐसी इच्छा करिए कि हमें बोधि चाहिए। बोधि मिलने के बाद संसार की धनादि
सामग्री मिलेगी तो उसका सदुपयोग करेंगे। हमको जो सामग्री मिल जाए तो हमारी तो यह
इच्छा है कि हम उसका मोक्ष की साधना में सदुपयोग करें। फिर हम अकेले मोक्ष में
नहीं जाएंगें,
अनेकों को साथ में लेकर जाएंगे। बोधि होने पर ही ऐसी इच्छा
हो सकती है। बोधि चाहिए न?
तो कहिए कि ‘शरीर की चिन्ता के स्थान पर, आत्मा
की चिन्ता स्थापित कर दी;
यह शरीर भी ममत्व करने लायक नहीं है तथा संसार की कोई भी
वस्तु ममत्व करने योग्य नहीं है।’ जिन जीवों को बोधि की प्राप्ति हो जाती है, वे
जीव भव में, संसार में कभी रंजित नहीं होते।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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