आभिनिवेशिक मिथ्यात्व का उदय होता है तो वह सम्यग्दृष्टि आत्माओं को ही होता
है। ऐसा होते हुए भी सम्यग्दर्शन गुण से पतित होने वाले सभी आत्मा आभिनिवेशिक
मिथ्यात्व के ही स्वामी होते हैं, ऐसा नहीं है। जिसे श्री जिन प्रणीत
शास्त्र के विषय में वास्तविक अर्थ से विपरीत अर्थ की श्रद्धा हो जाए और उस
श्रद्धा में फिर अहंकार मिल जाए और वह अभिमान भी ऐसा कि दूसरे ठीक रीति से, ठीक
अर्थ कहें तो भी उस अर्थ को सत्य न माने और उसे असत्य कहने पर तत्पर बन जाए, तब
सम्यक्त्व चला जाता है और मिथ्यात्व का उदय हो जाता है। इस मिथ्यात्व को
आभिनिवेशिक मिथ्यात्व कहते हैं।
इस मिथ्यात्व से बचना हो तो सम्यग्दृष्टि आत्माओं को सबसे पहले यह सावधानी
रखनी चाहिए कि ‘शास्त्र का अर्थ,
शास्त्र को बाधित करने वाला न होने पाए। ऐसी सावधानी रखने
के साथ ‘अन्य शास्त्रवादी कौनसा अर्थ क्यों करते हैं।’ इसके प्रति भी
दुर्लक्ष्य नहीं करना चाहिए।
श्री जिनप्रणीत शास्त्र का ज्ञाता मैं ही हूं, अन्य कोई नहीं, ऐसे
अभिमान से सम्यग्दृष्टि आत्माओं को सदा के लिए बचते रहना चाहिए। यह स्मरण रखना
चाहिए कि ‘सरलता-ऋजुता’
साधुत्व का सबसे अहम गुण है और अपने अर्थ का आग्रह कहीं उस
गुण को नष्ट न कर दे। ‘शास्त्र का जो अर्थ मैंने किया है, वही सच्चा है और दूसरे जो
उसका अर्थ करते हैं,
वह मिथ्या ही है’, ऐसे अहंकार से कभी विचार नहीं
करना चाहिए, लिखना नहीं चाहिए और बोलना भी नहीं चाहिए।
श्री जिनप्रणीत शास्त्र के ज्ञाता जो अपने से भिन्न रूप में अर्थ करते हैं, तो
उस अर्थ के विषय में भी स्वच्छ हृदय से और सूक्ष्म बुद्धि से विचार करना चाहिए।
आसपास का सम्बंध देखना चाहिए और कौन-सा अर्थ करने से अन्य शास्त्र-कथनों को बाधा
नहीं पहुंचती है,
यह ढूंढना चाहिए। किसी भी एक शास्त्र-कथन का अर्थ, इस
प्रकार का न हो कि उस अर्थ से अन्य शास्त्र-कथनों को बाधा पहुंचे। अपितु इस प्रकार
उसका अर्थ हो कि अन्य शास्त्र-कथनों के साथ वह सुसंगत हो। इसके बाद ऐसा कहा जा
सकता है कि यह अर्थ इस तरह अन्य शास्त्र-कथनों के साथ असंगत होता है, अतः
यह अर्थ ठीक नहीं है और यह अर्थ इस रीति से अन्य शास्त्र-कथनों के साथ सुसंगत होता
है, अतः यह अर्थ सत्य है।’
तात्पर्य यह है कि इसमें स्वयं का महत्त्व तनिक भी नहीं
होना चाहिए।
शास्त्र के अर्थ को जानने और प्रचार करने आदि का श्रम करना, संसार
सागर से तिरने का उपाय है,
परन्तु इसमें यदि मनुष्य ममत्व के वश हो जाता है और इस कारण
असंगत अर्थ के आग्रह में पड जाता है तो यही श्रम उसे डुबोने वाला भी बन सकता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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