बोधि प्राप्त व्यक्ति संसार में अनुरक्त नहीं होता, इसका
कारण क्या है?
वह क्यों संसार में रंजित नहीं होता? कारण
यह है कि ‘जो बोधि प्राप्त कर लेता है, उसमें निर्मम भाव आ जाता है।’ बोधि
प्राप्त करने से पूर्व जो ‘यह मेरा,
यह मेरा’ ऐसा भाव था, उसके बदले बोधि पाने
के पश्चात ऐसा भाव हुआ कि ‘यह भी मेरा नहीं,
यह भी मेरा नहीं!’ दुनिया के किसी भी पदार्थ को
अपना मानने की बुद्धि नहीं रहती। ‘सगे-सम्बंधी कोई मेरे नहीं’, ऐसा
निर्मम भाव आपके हृदय में पैदा हुआ है? शास्त्र कहता है कि ‘बोधि-लाभ
संसार में सबको नहीं होता। जिनका संसारकाल केवल अर्धपुद्गल परावर्तकाल से भी न्यून
हो, उसे ही बोधि की प्राप्ति हो सकती है। वह भी जो महाउद्यमी बनते हैं, उन्हें
प्राप्त होती है।’
इसके बिना बोधि-लाभ होना कठिन है।
अन्य लोगों को बोधि-लाभ न हो, इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं और
खेद भी नहीं करना चाहिए। ऐसे जीवों की तो दया ही करनी पडती है और यदि भारी
अयोग्यता मालूम पडे तो उपेक्षा भी करनी पडती है। ममता का जाना और निर्ममत्व का आना
सरल बात नहीं है। अभी तो आपने जितना-जितना अपना माना है और जो-जो मिले, उसे
अपना मानने के लिए तैयार हैं; इन सबके लिए बोधि-प्राप्त आत्मा को ऐसा
विचार होता है कि ‘यह मेरा नहीं है’,
यह क्या कोई सरल बात है? परन्तु निर्ममभाव आना जितना
कठिन है, उतना ही वह आवश्यक भी है। क्योंकि, निर्मम भाव आए बिना काम चलने
वाला नहीं है।
शरीर में ‘अहं’ बुद्धि और अन्य में ‘ममत्व’ बुद्धि; यही संसार की जड है। जो जीव बोधि को पाता है अथवा जल्दी ही बोधि पाने की
योग्यता को पाता है,
उसे यह अनुभव हो ही जाता है कि ‘यह
शरीर ‘मैं’ नहीं हूं तथा इस शरीर एवं संसार के सब पदार्थ वस्तुतः मेरे नहीं हैं, अपितु
‘पर’ हैं।
पहले बार-बार शरीर आदि याद आते हों, उसके बदले अब बार-बार आत्मा
और आत्मा के गुण याद आने चाहिए। शरीर को कैसे अच्छा बनाया जाए और शरीर कैसे अच्छा
बना रहे, ऐसे विचार बिना लाए भी आया ही करते हैं न? आपको अपना शरीर जिस तरह और
जितना याद आता है,
उस तरह और उतना ‘आत्मा’ याद
आता है क्या?
दुनिया को चाहे जितनी मात्रा में और चाहे जितनी अच्छी वस्तु
मिल जाने पर भी उसके दिल में यह बात उठे बिना नहीं रह सकती कि ‘यह
वस्तु मेरी नहीं है’;
तो उनकी प्राप्ति से अन्य व्यक्तियों की तरह उसके मन का
रंजन किस प्रकार हो सकता है? गाढ कर्मादि के कारण कदाचित वह वस्तु उसे
अच्छी भी लग जाए तो भी खटका तो अवश्य बना रहता है कि ‘यह
वस्तु मेरी नहीं है।’
इसलिए रंजन में कमी आए बिना नहीं रह सकती।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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