जो भव्यात्मा मुक्ति को प्राप्त कर चुके हैं, प्राप्त करते हैं और
प्राप्त करेंगे,
वे सब भव्यात्मा ‘मनुष्यभव, आर्यक्षेत्र, धर्मश्रवण
और धर्मश्रद्धा’
आदि समग्र सामग्री को पाकर ही मुक्ति में गए हैं, जाते
हैं और जाएंगे। मनुष्यभव आदि जो सामग्री है, वह जीव को मिलना दुर्लभ है।
परन्तु इस सामग्री में भी जीव को धर्मश्रद्धा प्राप्त होना अत्यंत सुदुष्प्राप्य
है। मनुष्यभव से लेकर धर्मश्रद्धा को पाने के बाद भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
और सम्यकचारित्ररूप मोक्षमार्ग की आराधना द्वारा ही भव्यात्मा मोक्ष को प्राप्त
करते हैं।’
सम्यग्दर्शन गुण को पाने के पश्चात भी जो भव्यात्मा सर्वविरति, अप्रमत्तभाव
और क्षपक श्रेणी अंगीकार करते हैं और क्षपक श्रेणी में राग-द्वेष का सर्वथा क्षय
करने के बाद केवलज्ञान प्राप्त करते हैं; वे ही केवलज्ञान पाने के बाद
आयुष्य के अंतिम भाग में अयोगीदशा पाकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। जो केवलज्ञान
को पाते हैं,
वे तो उसी भव में नियम से अयोगीदशा को पाकर मोक्ष प्राप्त
करते हैं, परन्तु क्षपक श्रेणी करने वाले सभी आत्मा केवलज्ञान को उसी श्रेणी में और उसी
भव में पाते हैं,
ऐसा एकांत नियम नहीं है। क्षपक श्रेणी का आरंभ कर
दर्शन-सप्तक का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दर्शन गुण को पाकर भी कई आत्मा रुक जाएं, ऐसा
भी हो सकता है। भव्यात्माओं को मोक्ष पाने के लिए इन सब सामग्रियों की अपेक्षा
रहती है। इसलिए भव्यात्मा जिस समग्र सामग्री को पाकर मोक्ष पाते हैं, उन
सब सामग्रियों की प्राप्ति दुर्लभ ही है, परन्तु उनमें धर्मश्रद्धा तो
विशेष कर सुदुष्प्राप्य ही है।
धर्मश्रद्धा शब्द का प्रयोग सम्यक्त्व के कारण रूप में भी हो सकता है और
सम्यक्त्व के अर्थ में भी। शास्त्रों में धर्मश्रद्धा शब्द का अनेक स्थानों पर
प्रयोग हुआ है। सहस्रावधानी आचार्य श्री मुनिसुंदर महाराज ने जयानंद केवली चरित्र
में कहा है कि ‘धर्मश्रद्धा,
सम्यक्त्व का अनघ बीज है।’ धर्मश्रद्धा का अर्थ
धर्मकरणाभिलाषा भी हो सकता है। धर्म करने की जो अभिलाषा है, इसे
भी धर्मश्रद्धा कहा जा सकता है। जो धर्मश्रद्धा सम्यक्त्व के अनघ बीजरूप है, उसी
धर्मश्रद्धा की यहां बात है और इसीलिए धर्म श्रद्धा की प्राप्ति द्वारा सम्यग्दर्शन
गुण की प्राप्ति होती है,
ऐसा वर्णन किया गया है।
धर्मश्रद्धा को सम्यग्दर्शन का ‘अनघ बीज’ कहा
गया है। अनघ बीज का अर्थ है ‘निर्दोष बीज’।
निर्दोष बीज यदि योग्य भूमि में बोया गया हो और उसके बाद योग्य सामग्री मिल जाए तो
वह बीज अपने संपूर्ण फल को देने वाला होता है। यह बात किसी से भी छिपी हुई नहीं
है। इससे आप समझ गए होंगे कि ‘धर्म श्रद्धा कितनी अनुपम वस्तु है।’ परन्तु
यह धर्मश्रद्धा,
जिसमें मोक्ष की अभिलाषा नहीं होती, उसमें
प्रकट नहीं हो सकती।-आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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