अज्ञानी आत्माएं पाखण्डी एवं स्वार्थी मनुष्यों के जाल में
फंसने के कारण महान भयानक पाप को भी धर्म मान लेती है और धर्म के नाम पर अनेक
प्रकार के हिंसादि घृणित कार्य प्रारम्भ करती है। ऐसे मनुष्यों को यदि पाप-मार्ग
से कोई उबारना चाहे और सत्य का ज्ञान कराना चाहे तो वह भी उन पापात्माओं से सहन
नहीं होता। सत्य का ज्ञान कराने के लिए उपकारी पुरुष कठोर शब्दों का प्रयोग भी
करते हैं और उसके लिए उन्हें अनेक कष्ट सहन करने पडते हैं। सच्चा धर्म-प्रेमी
मनुष्य धर्म की रक्षा के लिए अपनी ताकत का उपयोग करने में लेशमात्र भी प्रमाद अथवा
उपेक्षा नहीं करता और उसी में उसके धर्म-प्रेम की कसौटी होती है। जिन्हें जैन शासन
के प्रति प्रेम नहीं है वे तो बात-बात में यह कह देते हैं कि ‘होगा,
जो करेगा वो भरेगा, हम
क्यों व्यर्थ समय नष्ट करें?’ ‘चलने दो’ अपने को क्या करना है, ऐसे मंद विचारों और लापरवाही
से समाज सड जाता है। शासन का सच्चा प्रेमी तो ऐसे समय पर शान्त बैठा रह ही नहीं
सकता।
रोम-रोम में धर्म व्याप्त हो
केवल बातें करने वाले लोग धर्म की आराधना नहीं कर सकते।
धर्म तो हमारे रोम-रोम में व्याप्त होना चाहिए। ज्ञानियों के एक-एक वचन के लिए
सर्वस्व समर्पित करने की उत्कंठा हम में बलवती होनी चाहिए। इसके बिना योग्य
आलंबनों का उचित लाभ नहीं लिया जा सकता। यदि उत्तम संगति प्राप्त होने पर भी
आवश्यक सद्भावना की हृदय में उत्पत्ति न हो तो हमारा महान् दुर्भाग्य ही माना
जाएगा। संसार में ख्याति प्राप्त करने के लिए अथवा किसी अन्य सांसारिक स्वार्थ के
लिए जो लोग सत्य आदि धर्म के उपासक बने हों, वे
सत्य आदि धर्म को हानि ही पहुंचाते हैं। उनका ज्ञान अज्ञान के समान, उनका संयम असंयम के समान और उनकी अहिंसा हिंसा के समान ही कार्य करती है।
जिससे धर्म दौडा हुआ हमारे पास आए, वही शिक्षा है, वही ज्ञान है। जो शिक्षा हमें धर्म से विपरीत ले जाए, ज्ञानी
और उनके वचन की हंसी कराए, ज्ञानियों द्वारा कथित
अनुष्ठानों की खुले बाजार में मजाक हो, उस ज्ञान से, उस शिक्षा से किसी का भला नहीं हो सकता, उससे
तो दुर्गति ही होने वाली है, विनाश ही होने वाला है, इसलिए ऐसे कुत्सित विचारों, शिक्षा और प्रयासों से हमेशा
बचकर रहें और वास्तविक धर्म से अपने रोम-रोम को आप्लावित करें।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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