स्वर्ग एवं मोक्ष प्राप्त कराने वाले मानव-जन्म को पाकर भी जो मनुष्य नरक
प्राप्त कराने वाले कर्मों में उद्यमशील रहते हैं, वे सचमुच खेद उत्पन्न
कराने वाले हैं,
क्योंकि ऐसे मनुष्यों को देखने से हितैषी सज्जनों को वास्तव
में खेद होता है। जिस मानव जन्म को प्राप्त करने के लिए अनुत्तर देवता भी
प्रयत्नशील रहते हैं,
उस मानव जीवन को पाप कार्यों में नष्ट कर डालना पुण्यशाली
मनुष्यों का कार्य नहीं है,
अपितु पापियों का ही कार्य है। जीवन को हर वक्त समस्याओं, निराशाओं
और नासमझी के साथ जीना जीना नहीं है, मात्र जीवन का बोझ ढोना ही
है। ऐसे व्यक्ति बहुमूल्य मानव जन्म को नष्ट कर अक्षय सुख-शान्ति-आनंद से वंचित ही
रहते हैं।
अतः पुण्योदय से प्राप्त मानव जन्म को सफल एवं सार्थक करने के उपाय करने
चाहिए। उसे सार्थक करने के लिए मुक्ति का लक्ष्य बनाकर अर्थ एवं काम की आसक्ति से
बचने, जिनेश्वर देव की सेवा में ही आनंद अनुभव करने, सद्गुरुओं की सेवामें
रत रहने तथा श्री वीतराग परमात्मा के धर्म की आराधना में निरंतर प्रयत्न करने
अर्थात् भाव सहित अनुकम्पा-दान एवं सुपात्र-दान देने, शील-सदाचार
का सेवक बनने,
तृष्णा का नाश करने वाले तप में रत रहने और अपने साथ दूसरों
की कल्याण-कामना करने,
मैत्री आदि चार एवं अनित्यादि बारह तथा अन्य भावनाओं का
सच्चे हृदय से उपासक बनने के प्रयत्न करने चाहिए। तभी मानव-जन्म की सार्थकता है।
संसार
से मुक्ति ही एकमात्र ध्येय हो
संसारीपन से मुक्त होने के लिए एकमात्र अनुपम साधन अनंतज्ञानी श्री जिनेश्वर
देवों द्वारा उपदिष्ट धर्म है। धर्म की आराधना करने का वास्तविक हेतु यही है कि
स्वयं का संसार नष्ट हो। श्री जिनेश्वर देव के स्वरूप को जानने और मानने वाले में
स्वयं का अथवा दूसरे का किसी का संसार टिकाए रखने की भावना हो, ऐसा
नहीं है। जिसको संसार में रहने की रुचि हो, जिनको संसार में रहना अच्छा
लगता है, उनमें साधुपन भी नहीं और श्रावकपन भी नहीं है। स्वयं का और सबके संसार के नाश
की अभिलाषा रखना,
यह ऊॅंची में ऊॅंची कोटि की इच्छा है। आत्मा में भाव-दया
प्रकट हुए बिना इस प्रकार की उत्तम इच्छा प्रकटे, यह संभव नहीं है। ‘जीव
मात्र के संसार का नाश हो’,
ऐसी अभिलाषा की उत्कृष्टता से तो तीर्थंकरत्व पुण्य का
उपार्जन होता है। संसार अर्थात् विषय और कषाय। जिसके विषय-कषाय दूर हो गए, उसका
दुःख भी दूर हो गया। उसका संसार परिभ्रमण भी टल गया है। विषय-कषाय के योग से ही
आत्मा को जन्ममरणादि का दुःख भोगना और चार गति चौरासी लाख जीव योनियों में भटकना
पडता है। यह मानव-भव उससे मुक्ति के लिए है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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