धर्मी कदापि दुःखी नहीं होता है। दुःख पाप से और सुख धर्म से, ऐसा
तत्त्व ज्ञानी परमर्षियों ने कहा है। पूर्व भव की तपस्या के प्रभाव से विशल्या के
स्नान-जल से भी जनता रोग-रहित हो जाती थी। आज तो धर्म बराबर करे नहीं, अन्दर
हृदय में जहर भरा हो और कहेंगे कि ‘धर्म फलता नहीं।’ ऐसों
को कहा जाए कि ‘धर्म किया हो तो फलेगा न?’ व्यर्थ में धर्म को बदनाम न करो। धर्मी
आत्मा तो दुःख में सुख का अनुभव कर सकती है। समभाव से दुःख को सहन करे, कर्म
की दशा को समझे और श्री जिनेश्वर देव के फरमान मुताबिक धर्म करे, तो
दुःख में भी सुख का स्वाद चख सकते हैं। राजा कुमारपाल की तरह ‘धर्महीन
दशा वाली चक्रवर्ती की अपेक्षा, धर्म वाली दरिद्र अवस्था भी मुझे प्राप्त
हो जाए’, ऐसा कब बोला जाता है?
तभी ऐसा हृदयपूर्वक बोला जा सकता है कि जब यह समझ पक्की बन
जाए कि ‘धर्म के बिना कल्याण नहीं। धर्महीन चक्रवर्तीता तो आत्मा का एकांत रूप से नाश
करने वाली है।’
ऐसा हृदय में बराबर जच जाए। उसके बाद तो चक्रवर्ती की
अपेक्षा भी उस दरिद्रता में आत्मा सच्चे सुख का अनुभव कर सकती है। यही धर्म का
अनुपम प्रभाव है। पूर्वकृत पुण्य से मिली लक्ष्मी से पाप करना या पुण्य को बढाना? यह आपके
हाथ में है। विवेक पूर्वक आप इस पर विचार करें। आप इससे अपने लिए नरक के द्वार भी
खोल सकते हैं और मोक्षमार्ग के द्वार भी खोल सकते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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