आज अधिकांशतः यह दशा हो गई है कि स्वयं के दोष देखते नहीं और दूसरों के दोष
खोजे अथवा कल्पित किए बिना रहना नहीं। पिता और पुत्र के मध्य में कोई, जो
पुत्र को शिक्षा देने जाए तो पुत्र पिता के कल्पित दोषों को भी गाने लग जाता है।
और जो पिता को शिक्षा देने के लिए कोई जाए तो वह पुत्र के कल्पित दोषों को भी गाने
लग जाता है। कारण कि दोनों को स्वयं के दोष छिपाने हैं। इस प्रकार का आज पति-पत्नी
के बीच में, भाई-भाई के बीच में,
माता-पुत्री के बीच में, मित्र-मित्र के बीच में, सगे-संबंधियों
के बीच में प्रायः सर्वत्र कमोबेश प्रमाण में चल रहा है। इस दशा में धर्म के
द्रोही, सुसाधुओं के ऊपर भी कल्पित कलंक चढाते हैं, इसमें आश्चर्य क्या? आज
कितनी ही बार कुशिष्य भी क्या करते हैं। स्वयं उद्दण्ड बनकर गुरु की आज्ञा में न
रहते हों, किन्तु कोई पूछे तो स्वयं खराब न कहलाने की दृष्टि से, वे
गुरु पर भी कल्पित दोष लगाते हैं। कितने ही पतित भी ऐसा धंधा करते रहते हैं। स्वयं
पतित हुआ है,
किन्तु निन्दा दूसरे साधुओं की और गुरु की करते हैं। ‘साधु
और गुरु खराब थे,
इसीलिए मुझे साधुपना छोडना पडा’, ऐसा
कहने वाले पतित भी हैं। कई बार ईर्ष्यालु लोग भी ऐसा ही करते हैं। आज कितने ही
धर्मद्रोही, साधु-धर्म व साधु-संस्था के विरूद्ध प्रचार कर रहे हैं। स्वयं का क्षुद्र
स्वार्थ साधने के पीछे धर्म की कितनी हानि होगी, यह सोचने की बुद्धि उन
स्वार्थियों में नहीं होती है। ऐसे स्वार्थी स्वयं के भविष्य का भी विवेकपूर्वक
विचार नहीं कर सकते।
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