नीति के मार्ग पर चलते हुए जो पुण्य न फले और अनीति करने से ही जो पुण्य
फलदायी हो, उसके लिए समझ लेना चाहिए कि वह पुण्य पापानुबंधी पुण्य है। पापानुबंधी पुण्य
भी अर्थ-काम की सामग्री प्राप्त कराने वाला है और पुण्यानुबंधी पुण्य भी अर्थ-काम
की सामग्री प्राप्त कराने वाला है। किन्तु, इन दोनों के बीच में अन्तर
है। पापानुबंधी पुण्य उदय में आने लगे कि पापवृत्ति शुरू हो जाए। उसका जितना अधिक
उदय होगा, उतनी ही पापवृत्ति अधिक होगी। इस पुण्य का उदय आदमी को आदमी नहीं रहने देता।
आदमी को पागल बना देता है। अर्थ और काम की सामग्री का नशा चढ जाता है और धर्म भूल
जाता है। थोडी आत्माएं ही सामर्थ्य अर्जन करें तो बच सकती हैं। पापानुबंधी पुण्य
का उदय भविष्य में बहुत भयंकर प्रकार से दुःख देने वाला होता है। जबकि
पुण्यानुबंधी पुण्य की दशा इससे विपरीत होती है। पुण्यानुबंधी पुण्य का उदय
पापानुबंधी पुण्य की तुलना में बहुत ही उच्च कोटि की सामग्री देता है और उसमें
आत्मा को पागल नहीं बनाता है। इस सामग्री का आत्मा उपभोग करता रहे तब भी उसे
विरक्ति पैदा होती रहती है। मिली हुई सामग्री का उन्मार्ग की बजाय सन्मार्ग में
व्यय होता है। यह पुण्यानुबंधी पुण्य का प्रभाव है। इसके प्रभाव से आत्मा अनीति से
दूर रहता है,
बुद्धि निर्मल रहती है, भावनाएं पवित्र रहती हैं और
मोक्ष-मार्ग की ओर उन्मुख होता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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