जो अर्थ-काम को हेय माने, धर्म-मोक्ष को उपादेय माने, वही
संघ में गिना जाए। संघ छोटा हो तो हर्ज नहीं, लेकिन वह भगवान की आज्ञा
मानने वाला हो।
धर्म संघ के चारित्र का मूलाधार तादात्म्य तथा प्रेम है। यह मेरा संघ है, मैं
इसका अंश हूं,
इसकी भलाई में ही मेरी भलाई है; यह
भाव जब उत्पन्न होता है,
तब संघ-चरित्र का निर्माण होता है। मेरे कार्य से संघ को
भले ही लाभ न हो,
कम से कम हानि तो न हो; यह भाव उत्पन्न होने पर संघ
का चारित्र प्रकट होता है। जब यह विचार जाग्रत होता है और अहो रात्र संघ का चिन्तन
होता है, संघ को उठाने का,
संघ-समाज को सुखी करने का, संघ के प्रत्येक
व्यक्ति के प्रति कर्त्तव्य पूर्ति का विचार होता है, मैं
रहूं या न रहूं,
उससे क्या; संघ रहना चाहिए, यह
सोच बनना चाहिए।
चरित्र या स्नेह का आधार एकात्मता है। जो इस एकात्मता को पहचानेगा, वही
स्नेह कर सकेगा,
वही असुखी होते हुए भी प्रेम करेगा। अतः केवल चारित्र्य का
आग्रह करने से चारित्र्य निर्माण नहीं होगा, उसके लिए ठोस आधार लेना
पडेगा। प्राचीन काल से चला आनेवाला हमारा संस्काररूप जीवन, जिसे
संस्कृति कहते हैं,
वही सामान्य अधिष्ठान है। उसके जागरण से ही एकात्मता संभव
है। प्रत्येक व्यक्ति एकात्मता का व्यक्त रूप है, यह समझ कर समाज की
सेवा करना ही धर्म है। जैसे जीवाणु शरीर की सेवा करते हैं, कोई
भी आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करता; वैसे ही समाज को एकात्मस्वरूप
जानकर (केवल मानकर नहीं) जीवन को समष्टिरूप समाज की सेवा में लगा देना ही जीवन का
साफल्य है। एकात्मता का भाव ही समाज को सुसंगठित रूप दे सकेगा।
शारीरिक शक्ति आवश्यक है, किन्तु चरित्र उससे भी अधिक महत्व का है।
बिना चरित्र के केवल शारीरिक शक्ति मनुष्य को पशु बना देगी। चरित्र की शुद्धता ही
वैभव एवं महानता की जीवन-प्राण होती है।
यदि महान जागतिक लक्ष्य में हम सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें प्रथमतः
अपना उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। हमें वादों की मानसिक श्रृंखलाओं और आधुनिक जीवन
के व्यवहारों तथा अस्थिर फैशनों से मुक्ति कर लेनी होगी। परानुकरण से बढकर संघ की
अन्य कोई अवमानना नहीं हो सकती। हम स्मरण रखें कि अन्धानुकरण का अर्थ प्रगति नहीं, वह
तो आत्मिक पराधीनता की ओर ले जाता है।
समाज इसे समझे और वैश्विक आवश्यकताओं पर खरा उतरे। आज चहूं ओर जो घोर निराशा व
भय का वातावरण है,
उसमें जैन धर्म के सिद्धान्त ही आशा की एक किरण हैं।-सूरिरामचन्द्र
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