देश बरबाद हो रहा है। मनुष्य, मनुष्य नहीं रहा। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य
जीवों को तो मानो जीने का अधिकार ही नहीं, ऐसी हवा फैलगई है। वर्तमान
युग, हिंसक युग है। जिस युग को आप अच्छा मानते हैं, वह घोर घातकी युग है।
लाखों जीव काटे जाते हैं;
वह भी कानून का ठप्पा लगाकर। आप इस हिंसा को रोक भी नहीं
सकते। यदि रोकने का प्रयत्न करो तो ‘देशप्रेमी’ न
गिनाओ। आज मनुष्य,
मनुष्य से घबराकर चलता है। जानवर से तो थोडी दूरी पर रहे तो
निर्भय, परन्तु मनुष्य तो पीछे पडजाता है। अतः उससे डरकर रहना पडता है। ऐसा यह युग है।
कैसा विचित्र है यह युग!! इतनी अधिक अधोगति हो रही है, तथापि
‘प्रगति हो रही है’
ऐसा बोलने वालों को लज्जा तक नहीं आती। यह अचरज की बात नहीं
है? ऐसा जंगली जमाना तो कभी नहीं रहा होगा।
आजकल एकता की बातों के नाम पर ही एकता के टुकडे हो रहे हैं। धर्म के नाम पर
जाति के नाम पर राजनीति हो रही है। भूतकाल में जो एकता थी, वह
आज देखने को नहीं मिलती। अमेरिका का अनाज यहां आता है, परन्तु
यहां के एक प्रांत का अनाज दूसरे प्रांत के काम नहीं आता। विदेशी भी अनाज देकर कोई
उपकार नहीं करते! वे अपना कचरा यहां सरका देते हैं और यहां की अच्छी चीज वहां जाती
है। कैसी विरोधाभासी और विनाशक नीतियां है और कहते हैं कि प्रगति हो रही है। यह
कितने शर्म की बात है! आज देश का उद्धार नहीं, अधःपतन हो रहा है। शक्ति बढने
के साथ आपके घरों में मौज-शौक के साधन तो बढते ही जाते हैं, परन्तु
धर्म के साधन बढते हुए कहीं नजर नहीं आते हैं।-सूरिरामचन्द्र
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