धर्म-प्रिय व्यक्ति को धर्म की रक्षार्थ सर्वस्व त्याग करने को सदैव तत्पर
रहना चाहिए। केवल मुक्ति की अभिलाषा से किया गया धर्म ही शुद्ध धर्म होता है। अन्य
सभी धर्म मलिन हैं और उनसे कब आत्मा का अधःपतन हो जाए, कहा
नहीं जा सकता। इसलिए शाश्वत सुख की अभिलाषा करने वाले मनुष्य को धर्म का आचरण केवल
मुक्ति की अभिलाषा से ही करना उचित है, क्योंकि उस प्रकार किए गए
धर्म से संसार का कोई भी मंगल असाध्य नहीं रहता। शुद्ध धर्म से प्राप्त ऐश्वर्य
आत्मा को पाप कर्मों में उलझने नहीं देता, बल्कि पाप से सचेत कर मुक्ति
की आराधना सरल बनाता है।-सूरिरामचन्द्र
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