शरीर वेदिका है,
आत्मा यज्ञ की कर्ता है, तप अग्नि है, ज्ञान
घी है, कर्म समिधा (काष्ठ) है,
क्रोध आदि पशु हैं, सत्य यज्ञ स्तम्भ है, समस्त
प्राणियों की रक्षा ही दक्षिणा है और रत्नत्रयी (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान
और सम्यग्चारित्र) त्रिवेदी है। इस प्रकार किया गया यज्ञ मोक्ष का साधन होता है।
रत्नत्रयी (सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र) रूपी त्रिवेदी में स्थिर
होने वाली आत्मा स्वयं ही यज्ञ की कर्ता है और वेदिका अपना शरीर ही है। उसमें वह
तपस्या रूपी अग्नि जलाता है और उस अग्नि को प्रज्वलित रखने के लिए ज्ञानरूपी घृत
की धारा अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित रखी जाती है। उस प्रज्वलित अग्नि में कर्मरूपी
काष्ठों को डालकर क्रोध आदि कषायोंरूपी पशुओं की उसमें आहुति दी जाती है। सत्य
यज्ञ का स्तम्भ है। प्राणी-मात्र की रक्षा करना दक्षिणा है। इस प्रकार का मन, वचन
और कायारूपी तीनों योगों की तल्लीनतापूर्वक यज्ञ करने वाला मनुष्य उस यज्ञ को
मुक्ति का साधन बनाता है।-सूरिरामचन्द्र
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