यह संसार सुख-दुःख का मेला है। दुःख अधिक है, सुख थोडा है। इन दो के सिवाय संसार
में और है ही क्या? ऐसे संसार के दुःख में दुःख मानना और सुख में सुख मानना
मूर्खता है। इसके विपरीत, दुःख में जिन्होंने आनन्द माना वे ही मोक्ष में गए। सुख को
जिन्होंने लात मारी वे ही त्यागी बन सके। पाप से प्राप्त दुःख में नाराजी और पुण्य
से प्राप्त सुख में प्रसन्नता, इसी का नाम अविरति है। जगत को ‘अविरति’ का भान नहीं। यह बात जैन शासन में ही है। परन्तु, जैन भी आजकल ‘अविरति’
को नहीं समझते। आजकल इस संसार रूपी
नक्कारखाने में अविरति की ही नौबत बज रही है,
ऐसे में हमारी तूती कौन सुने? सुख के साधनों में मौज करने वाले, उसकी अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा करने
वाले और उसकी कमी के लिए खेद प्रकट करने वाले;
सब अविरति में फंसे हुए हैं।
मिथ्यात्व कहता है कि ‘जहां तक मेरी अविरति आनन्द में है, वहां तक मुझे कोई चिन्ता नहीं। जब
अविरति रोने लगती है, तब मुझे घबराहट होती है।’
कर्म के उदय से जीव को दुःख आने ही
वाला है। उस समय कदाचित् ऐसे संयोग मिल जाएं कि उस पर दया करने वाला कोई न रहे। आज
हजारों जानवर बिना किसी अपराध के काटे जा रहे हैं और किसी के पेट का पानी नहीं हिल
रहा है। जानवरों के पाप का उदय भी ऐसा आया है कि वे काटे जा रहे हैं और उन पर दया
करने वाला कोई नहीं है; आपके लिए भी दुःख के प्रसंग में ऐसा नहीं होगा, इस बात का क्या भरोसा है? इसलिए इस बात को गहराई से समझो और
दुःख में दुःख व सुख में सुख मानना और वैसा व्यवहार करना छोडो। समभाव से रहो।
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