एक मिथ्यात्व के ही प्रताप से प्रायः सम्पूर्ण जगत, आत्मा आदि की मान्यताओं में भ्रमित भटकता है। मिथ्यात्व ऐसा अहंकार है कि इसके योग से पुजारी स्वयं भटकता है और अन्य को भी भटकाता
है। इस विश्व में सत्य, प्रतीति से सिद्ध और प्रमाण से प्रतिष्ठित ऐसे भी तत्त्वों का अपलाप करके, असत्य और प्रमाण तथा प्रतीति से भी बाधित ऐसे तत्त्वों का प्रवर्तन करने वाला कोई
है तो वह एक मिथ्यादर्शन ही है। मिथ्यादर्शन
के आधीन बनी हुई आत्माएं मिथ्यादर्शन के योग से स्वयं का नाश करने के साथ दूसरे का
नाश भी बखुबी करती है। मिथ्यात्व के आधीन आत्माओं
द्वारा सत्य के पूजक विश्व को बहुत कुछ सहना पडता है।
यह मिथ्यात्व पांच प्रकार का होता है। पहले प्रकार का आभिग्रहिक नाम का मिथ्यात्व जिसका विवेकरूप प्रकाश स्वकीय-स्वकीय
शास्त्रों से नियंत्रित हो गया है और जो दूसरे पक्ष का तिरस्कार करने में चतुर है, ऐसे पाखण्डी को होता है। दूसरे
प्रकार का अनाभिग्रहिक नाम का मिथ्यात्व सामान्य जनता को होता है, कारण कि विवेक के अभाव में उनकी मान्यता ही ऐसी होती है कि सभी देव वंदनीय होते
हैं, किन्तु निन्दनीय नहीं। इसी प्रकार
समस्त गुरु भी वंदनीय होते हैं, किन्तु निन्दनीय नहीं और
सब धर्म माननीय हैं, किन्तु निन्दनीय नहीं। इस प्रकार
की मान्यता के प्रताप से सद् और असद् का विवेक नहीं कर सकने से सामान्य जनता का अनाभिग्रहिक
नामक दूसरे प्रकार का मिथ्यात्व होता है। तीसरे प्रकार का आभिनिवेशिक मिथ्यात्व उसको होता है कि जिसकी बुद्धि जमाली की तरह
वस्तुस्थिति को जानते हुए भी दुरभिनिवेश के लेश से खराब हो गई है। अर्थात् जो वस्तु
को यथास्थित जानते हुए भी स्वयं के खोटे आग्रह का पोषण करने हेतु तत्पर होता है, वैसी आत्मा को आभिनिवेशिक नाम का तीसरा मिथ्यात्व होता है। चौथे प्रकार का सांशयिक मिथ्यात्व देव, गुरु और धर्म के विषय में देव यह या यह? गुरु
यह या यह? और धर्म यह या यह इस प्रकार से
संशयशील बनी हुई आत्मा को होता है। पांचवें
प्रकार का अनाभोगिक मिथ्यात्व विचारशून्य एकेन्द्रियादिक को अथवा कोई भी विशेष प्रकार
के विज्ञान से विकल आत्मा को होता है।
इन पांच प्रकारों से समझा जा सकता है कि इस विश्व में मिथ्यात्व
रूप शत्रु से बची हुई आत्माओं की संख्या अति-अल्प है। इस प्रकार का मिथ्यात्व रूप अन्धकार
यह भयंकर अन्धकार है। इस भयंकर अन्धकार के प्रताप से वस्तु-स्वरूप को नहीं समझने वाली
आत्मा अनेक अनाचारों का आचरण करके नरकगति आदि रूप अन्धकार में भटकती रहे, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। -सूरिरामचन्द्र
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