जिसके
प्रताप से आत्मा मोक्ष-मार्ग के प्रति शिथिल प्रयत्न वाला हो जाता है, उसी का
नाम प्रमाद है और यह प्रमाद श्री तीर्थंकर भगवान ने आठ प्रकार का कहा है-
- अज्ञान अर्थात् मूढता।
- संशय अर्थात् क्या यह वस्तु ऐसी होगी अथवा अन्यथा, इस प्रकार का संदेह।
- मिथ्याज्ञान अर्थात् वस्तु जिस स्वरूप में हो, उस रूप में स्वीकार नहीं करते हुए गलत रूप में स्वीकार करना।
- राग अर्थात् आत्मा, आत्मा के गुण और उसके विकास के साधनों के अतिरिक्त जो-जो पदार्थ हैं उन पर ममत्व-भरा अत्यन्त प्रेम।
- द्वेष अर्थात् अप्रीति।
- स्मृति-भ्रंश अर्थात् विस्मरणशीलता।
- धर्म में अनादर अर्थात् श्री अरिहंत परमात्मा द्वारा अर्पित धर्म के आराधन में उद्यम न करना।
- योगों का दुष्प्रणिधान अर्थात् मन-वचन-काया इन तीनों योगों की दुष्टता करनी।यह आठ प्रकार का प्रमाद कर्म-बंध का हेतु होने से त्यागने योग्य है।-सूरिरामचन्द्र
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