पढा हुआ मनुष्य सीधा हो तो काम निकाल देता है। सीधे उतरे तो ज्ञानी कल्पतरु
कहलाता है, किन्तु विपरीत होता है वह कण्टक-तरु कहलाता है। विनीत ज्ञानी कल्पतरु है, कर्मक्षय
की प्रवृत्ति को करने वाला होता है, वह ज्ञानी और यह ज्ञानी कल्पतरु कहा जाता है, किन्तु
जो उद्धत होता है, वह स्वच्छन्दी होता है, स्वेच्छाचारी होता है, वैसा
ज्ञानी तो कण्टकतरु है। वह जहां जाता है वहां सत्यानाश ही करता है, क्योंकि
वह पढा-लिखा है,
इसीलिए यानी दांव-प्रपंच करना आता है।
शास्त्रकार कहते हैं कि मर्यादाशील ज्ञानी तो ऐसी सुन्दर योजना करता है कि
जिससे योग्य मात्र का भला ही होता है। ऐसे उन्नत ज्ञानियों की शरण में आई हुई
हजारों आत्माएं उत्तम विचार और उत्तम आचार की पालनकर्ता होती हैं और वे भक्षक न
होकर रक्षक होती हैं। किन्तु ज्ञानी यदि स्वेच्छाचारी बनता है, तो
जहां जाता है वहां विपरीत योजना-पूर्वक कार्य करता है, जिसके
योग से हजारों आत्माओं का संहार होता है। इसी प्रकार श्रीमान भी दो प्रकार के होते
हैं, एक श्रीमान तो ऐसा होता है कि जिसकी छाया में आने वाला आश्रय प्राप्त करता है
और एक ऐसा होता है कि जिसकी छाया में आने वाले का सत्यानाश होता है। यह ऐसा होता
है कि स्वयं की छाया में आने वाले का कस निकालता है और वह श्रीमान ऐसा होता है कि
स्वयं की छाया में आने वाले को थोडा या बहुत भी देता है। इसकी छाया में आने वाले
को ऐसा लगता है कि श्रीमान हों तो ऐसे हों।
जिस प्रकार श्रीमान,
उसी प्रकार रूपवान, बलवान, सत्तावान; किन्तु
वे भी दो प्रकार के,
एक अच्छे और एक बुरे। एक बलवान तो ऐसा होता है कि जो निर्बल
की रक्षा ही करता है और अपने ऊपर आए हुए प्रहार को भी सहन कर लेता है। किसी को
दूसरा मारता है तो स्वयं उसको बचाता है, किन्तु स्वयं को यदि कोई
मारता हो तो सहन कर जाता है। ऐसा बलवान तो सबको प्रिय होता है। अनन्त बली ऐसे होते
हैं। जिसमें ऐसी योग्यता न हो, उसको वैसा बल मिलता भी नहीं है। दुर्जन को
जो याचना करे जैसा बल मिलता होता, तो जगत में एक भी सज्जन जीवित नहीं रहता
और रह भी नहीं सकता। क्योंकि दुर्जन उसको जीने भी नहीं देते। किन्तु ऐसा बल उनको
मिलता ही नहीं है। दुर्जन की यह मान्यता है कि ‘मैं अकेला हूं और मेरे
जैसा दूसरा कोई भी नहीं ही है।’ इस मान्यता के होने से वह दूसरों पर जुल्म
करता है। किन्तु,
बात यह है कि उसको याचना के अनुसार बल मिलता ही नहीं है। क्योंकि, उसमें
बल के दुरुपयोग की संभावना अधिक है। अनन्त बली तो निर्बल को बचाते हैं और स्वयं पर
आए तो सहन कर जाते हैं। इन तारकों के बल का उपयोग दूसरों को बचाने में होता है तथा
स्वयं पर आई हुई विपत्ति को सहन करने में होता है। दूसरा बलवान ऐसा होता है कि
दुर्बल मात्र को पीटता है,
इतना होने पर भी जो उसके सम्मुख कोई किंचित् भी आँख दिखाए
तो उसकी आँख फोड डालता है और गर्व के साथ कहता है कि ‘मुझे
आँख दिखाने वाला कौन?’
उपकारीगण तो ऐसे को कहते हैं कि सम्पूर्ण दुनिया तेरे सामने
आँख करती है और करेगी। तूं मारकर मिंया होता है, अतः सम्पूर्ण दुनिया
तेरे सामने नहीं तो भी तेरे पीछे तो यही कहती है कि ‘यह
नंग पैदा हुआ है।’
कोई तेरे सामने कदाचित् नहीं करे, किन्तु
पीछे तो तिरस्कार ही करेगी।
इसी प्रकार ज्ञानी भी दो प्रकार के होते हैं। एक ज्ञानी तो कल्पतरु के समान
अर्थात् स्वयं की आत्मा को भी पाप से बचाने वाला तथा दूसरे को भी बचाने वाला और एक
ज्ञानी ऐसा होता है कि स्वयं की स्वार्थ सिद्धि के लिए दूसरे का कितना भी नुकसान
हो, उसकी परवाह नहीं करने वाला। ऐसे ज्ञानी न हों तो अच्छा। इसी प्रकार श्रीमन्त, सुभग, सत्तावान
और बलवान के लिए भी समझ लेना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र
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