धनवान यदि धर्म करे
तो उसका धन धर्म का साधन हो सकता है। अन्यथा तो वह पाप का ही साधन होता है। सभी
प्रकार के पुण्योदय प्रशंसनीय ही होते हों, ऐसी बात नहीं है। जो
पुण्योदय महापाप के बंध में निमित्त होते हैं, उनकी प्रशंसा कौन
करेगा? जो पुण्योदय दुर्ध्यान उत्पन्न करता है, क्रूरता उत्पन्न
करता है, निष्ठूरता उत्पन्न करता है, मोह उत्पन्न करता है, उसकी प्रशंसा की जा
सकती है क्या? इसीलिए उपकारियों ने पुण्य दो प्रकार के बताए हैं, जिनमें से
पुण्यानुबंधी पुण्य प्रशंसनीय है और पापानुबंधी पुण्य प्रशंसनीय नहीं है। जिन्हें
पुण्यानुबंधी पुण्य से धन प्राप्त हुआ है, वे कभी लक्ष्मी के
वशीभूत नहीं होते; अपितु लक्ष्मी उनके वशीभूत होती है। पुण्यानुबंधी
पुण्य के उदय से जीव को जो सुख-सामग्री प्राप्त होती है, वह राग में वृद्धि
नहीं कर के विराग में वृद्धि करती है।
इस तरह धन भी एक गुण
अवश्य है, परन्तु वह धन यदि पुण्यानुबंधी पुण्य के उदय से
प्राप्त हुआ हो तो गुण है। संसार के अधिकतर धनी लोग जिस प्रकार से आज व्यवहार कर
रहे हैं, वे और उनका वह धन कभी प्रशंसनीय नहीं हो सकता है।
जिन्हें लक्ष्मी प्राप्त होती है, वे प्रायः उसके वश में हो जाते हैं और लक्ष्मी के वश
में होने पर अपार कष्ट उठाने पडते हैं। जो लोग इस तरह दुःखी बने हैं, उनके पुण्योदय की
प्रशंसा की जा सकती है क्या? उनके पुण्योदय का विचार भी क्यों किया जाए? ऐसे मनुष्य पुण्योदय
होने पर भी दुःखी होते हैं, अतः वे दया के पात्र हैं। जिस पुण्योदय के फल स्वरूप
दुःख आए और दुःखों की वृद्धि हो, उस पुण्योदय को आगे न लाने में ही बुद्धिमानी है। धन
के वशीभूत हुए लोगों का पुण्योदय भी पाप का कारण है। इसलिए धन के पीछे भागने में
समझदारी नहीं है।-सूरिरामचन्द्र
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