देह परित्याग कर
जाना तो निश्चित ही है। जिस व्यक्ति के मन से ममता उतर गई है, वह तो इच्छानुसार
उसे त्याग देगा और जिसके मन से ममता नहीं उतरी हो, उसे अनिच्छा से भी
देह का परित्याग करना ही पडेगा, फिर भी नश्वर वस्तुओं की रक्षार्थ जितने प्रयत्न हो
रहे हैं, उतने आत्मा के लिए नहीं होते, जबकि ये प्रयत्न तो
अत्यावश्यक हैं। संसार की कलाएं सीखने के लिए प्रशिक्षणालय एवं विद्यालय होते हैं, देह की खबर आदि
पूछने के लिए भी स्थान होते हैं और व्यापार-व्यवसाय के लिए परामर्शदाता व
व्यावसायिक-व्यावहारिक सलाहकार, उपदेशक मिल जाते हैं। इन्हें प्राप्त करने के लिए तो
शक्ति, ज्ञान, विज्ञान का उपयोग
धडल्ले से हो रहा है। इनके लिए टाइम-टेबल भी रखे जाते हैं। सारे मित्र भी उसके हैं, सहवास एवं सम्पर्क
भी उसी का है और वस्तु का लेखा-जोखा भी है; परन्तु कभी अपने
गुण-दोषों का हिसाब लगाया है? इस विश्व में जन्म लेकर उत्तम कार्य, पुण्य कार्य कितने
किए और अधम कार्य कितने किए? आपने दान-पुण्य कितना किया और लूटा कितना, उसका हिसाब कभी
लगाया है? आप यह मत कहना कि हमने सबको डाकू कह डाला।
जो कुछ कहा जाता है, वह आपके कल्याण हेतु
कहा जाता है, दुर्गुणों को दूर करने के लिए कहा जाता है और जिनमें दुर्गुण
न हों, उनमें दुर्गुण आ न जाएं, उसकी सावधानी रखने के लिए कहा जाता है। आप में
दुर्गुण न हों तो मुझे तो हर्ष है, परन्तु मैं अपने
कर्तव्य से च्युत नहीं होऊंगा। उस कर्तव्य के कारण मैं आपको पूछता हूं कि ‘आपने सदाचार कितना
किया है और अनाचार व दुराचार का सेवन कितना किया है? आपने जीवन में
सहिष्णुता कितनी रखी है और धांधली कितनी चलाई है? आप विषय-वासनाओं में
आसक्त रहे या उनसे विरक्त रहे? आपने इन्द्रियों के वशीभूत होकर अनुचित कार्य किए
अथवा जितेन्द्रिय बनकर अनुचित कार्यों से बचे रहे। आपने अन्य जीवों का कल्याण
कितना किया और अनिष्ट कितना किया?’ इन सब बातों का लेखा-जोखा आपने कभी किया है क्या?
किसी कवि ने कहा है
कि ‘ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समानाः’, अर्थात् ज्ञान हीन मनुष्य पशु-तुल्य होते हैं। अब पशु
कहा है तो फिर पशुओं के लिए तो सींग और पूंछ की भी आवश्यकता होती है। अतः कवि ने
आगे कहा कि ‘श्रंगपुच्छविहीना’। इस उक्ति के द्वारा कवि का आशय क्या मानव जाति का
अपमान करना है अथवा उसे गाली देने का उसका आशय है? नहीं, ऐसा नहीं है। कवि का
आशय तो यह है कि मनुष्यों को अपने मनुष्यत्व, मानवता का ध्यान रहे, वे अपना स्वरूप
समझें, अपना मूल्यांकन करें, आत्मालोचन करें और
मानव होते हुए भी उनमें पशुता प्रवेश कर रही हो तो वे सचेत हो जाएं। कहने का यह
केवल एक ही तात्पर्य है, परन्तु अवगुण बताने वाले के प्रति सद्भाव उत्पन्न
नहीं होता, वहां क्या हो? -सूरिरामचन्द्र
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