विश्व में चेतन और
जड ये दो प्रधान तत्त्व हैं। हमें चेतन अर्थात् आत्मा और उसके धर्म, आत्म-धर्म के विषय
में सोचना, चिन्तन करना है। जड-धर्म का अनुभव तो हमें प्रत्यक्ष
रूप से है और हम सब उसके राग-रंग के प्रति तुरन्त आकर्षित हो जाते हैं, लेकिन प्रधान वस्तु
आत्मा को हम देख नहीं पाते। अतः उस आत्मा के स्वरूप को हम कैसे समझ पाएं और उसके
धर्म का विकास कैसे हो? यही मुख्य रूप से हमें सोचना है। जब भी हम यथार्थ रूप
से यह समझ जाएंगे कि ‘आत्मा और आत्म-धर्म क्या है’, तब हमें जिस आनंद, सुख एवं शान्ति की
अनुभूति होगी, वह अत्यंत अद्भुत, निराली, अलौकिक होगी।
जब तक हमें यह लगन
नहीं लगे कि आत्मा का धर्म क्या होना चाहिए और उसके विकास हेतु हमें क्या प्रयास
करना चाहिए, तब तक आत्मा का साक्षात्कार असंभव है। हालांकि
आत्म-साक्षात्कार तुरंत और इतनी आसानी से संभव भी नहीं है; लेकिन फिर भी मनुष्य
यदि सद्गुरु के सम्पर्क में रहकर शान्त-चित्त से बाह्य पदार्थों से अपना मन विलग
करके, विरक्त करके, चौबीस घंटों में से एक-आध घडी भी अपने स्वरूप का
नित्य मनन करे, चिन्तन करे तो निस्संदेह उसकी झलक दृष्टिगोचर हुए
बिना नहीं रहेगी।
यह तो प्रत्येक को
स्वीकार करना ही पडेगा कि आत्मा देह से सर्वथा भिन्न कोई अदृश्य वस्तु है। आयुष्य
का अंत होने पर देह को यहीं छोडकर आत्मा को जाना पडता है। आत्मा, इहलोक और परलोक ये
तीनों वस्तुएं बुद्धि-संगत हैं। अन्यथा एक ही समय में उत्पन्न आत्माओं में भी
पारस्परिक भिन्नता क्यों दृष्टिगोचर होती? एक आत्मा उत्तम
परिवार में उत्पन्न होती है और एक अधम परिवार में, एक व्यक्ति मंद
बुद्धि होता है, दूसरा तीव्र एवं विलक्षण बुद्धि, एक में जन्म से ही
अनेक शक्तियां विकसित होती हैं, जबकि दूसरे में उन शक्तियों, उन गुणों को विकसित
करने में अनेक वर्ष लग जाते हैं। इन सबका कारण क्या है? अवश्य ही इसमें कुछ
न कुछ पूर्व जन्मों का योग, पूर्व जन्मों के संस्कार एवं सामग्रियां कारणभूत हैं, इसीलिए इस प्रकार की
भिन्नता परिलक्षित होती है।
देह से आत्मा भिन्न
है। अतः देह के धर्म ही आत्मा के धर्म नहीं हैं, यह स्वयं सिद्ध है।
यदि हम चौबीसों घण्टे प्रतिपल देह के धर्मों के विकास में ही व्यस्त रहेंगे तो देह
के स्वामी आत्मा की तो दुर्दशा होनी ही है। इस देह को एक दिन इच्छा से या अनिच्छा
से त्यागनी ही पडती है। इस स्पष्ट अनुभव को हम ध्यान में नहीं रखेंगे तो उसका
परिणाम क्या होगा? इस मानव भव में यदि हम आत्मा को नहीं पहचान सके और
आत्म-कल्याणार्थ यथासंभव करने योग्य न कर सके, तो मानव जीवन का
क्या मतलब रहेगा? -सूरिरामचन्द्र
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