आज तो कई लोग इतने
धृष्ट हो गए हैं कि साधु को पूछते हैं कि ‘आप किसके आधार से
जीवित हैं।’ साधु तो कहता है कि ‘भगवान के आधार से और
वह भी उन तारक के रजोहरण के आधार से जीवित हैं।’ कहते हैं कि ‘श्रावक देगा तब न?’ इसके उत्तर में साधु
तो कहते हैं कि ‘जो शरीर को देते हो तो न दो।’ श्रावक क्या शरीर को देता है? नहीं ही! संयम को
देता है! देने में कल्याण मानते हो तो दो, नहीं तो मत दो। साधु
किस प्रकार भिक्षा मांगने जाता है? ‘दो अन्नदाता!’ ऐसा कहते हैं? नहीं! वे तारक तो
निकलते हैं, तब से ही यह भावना कि “मिले तो संयम की पुष्टि और नहीं मिले तो तपोवृद्धि।” इसमें हानि है ही कहां?
भगवान श्री
महावीरदेव तथा भगवान श्री ऋषभदेव को भी अंतराय के उदय से दीर्घकाल तक भिक्षा नहीं
मिली। श्री ऋषभदेव स्वामी को तो कई महीनों तक नहीं मिली। 6-6 महीने तक प्रतिज्ञा
(अभिग्रह) पूरी न होने के योग से भगवान श्री महावीरदेव गांव में आकर वापिस चले
जाते थे और मजे से ध्यान में खडे रहते थे। वहां के राजा-रानी को भी चिन्ता होती, चिंता होती कि भगवान
रोज गांव में आते हैं और उनको भिक्षा नहीं मिलती है, इसे क्या कहा जाए? इसीलिए मैं कहता हूं
कि साधु आपके आधार से जीते हैं, आपकी रोटियों के आधार पर जीवित रहते हैं, ऐसा कभी मत मानना।
मानोगे तो पाप लगेगा। ऐसा मानोगे तो दी हुई रोटी भी निष्फल जाएगी। माल का माल
जाएगा, बेवकूफ बनोगे और देने पर भी तुम्हें लाभ नहीं मिलेगा।
संयम तारक है, आप से संयम ग्रहण
नहीं किया जाता, इसलिए संयमी को संयम-पुष्टि के साधन की सहायता करने
में उद्धार लगे, तो हाथ जोडकर, विनय से, बहुमान से, न आते हो तो विनती
पूर्वक घर ले जाकर देना। जीवित रखने की बुद्धि से देते हो, तो मत देना। गृहस्थी
के आधार से जीए वे तो पेटू, रोटियों के गुलाम, वे मुनि नहीं हैं।
आज तो नौकर भी कहते हैं कि ‘हम में कार्य-कुशलता होगी, कुब्बत होगी, तो सेठ बहुत हैं।
कुशलता नहीं होगी तो गुलामी करेंगे, इसीलिए हम आपके ऊपर
जीवित नहीं हैं। वेतन कोई मुफ्त में नहीं देते हो, अनीति नहीं करूंगा, आपकी इच्छा हो तो
रखो, नहीं तो सेठ बहुत हैं।’ ऐसे प्रामाणिक नौकर भी हैं। 50-60 रुपये के वेतनधारी
जो इस प्रकार बोलें तो संयम पर विश्वास रखने वाले साधु क्या बोलें? जिसके हाथ में
रजोहरण, क्या उसका पेट नहीं भरा जाएगा? साधु श्रावकों की
रोटियों का मोहताज नहीं है। रजोहरण वाले को रोटी-पानी के लिए दीनता करनी पडे, यह स्वप्न में भी न
सोचो और न मानो। परिपूर्ण भाग्योदय होता है तभी रजोहरण हाथ में आता है। जिसको
चक्रवर्ती सिर झुकाते हैं, उस संयम के सामने रोटी की क्या कीमत? -सूरिरामचन्द्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें