साधु भगवान श्री
महावीरदेव के गस्ती सिपाही हैं। साधु की आवाज या उसकी परछाई मात्र से ही भोग और
भोग के पिपासु भाग जाएं तो ही साधु की इज्जत अच्छी है। भोगी की रोटी पर योगी कदापि
जीवित नहीं रहता है। जो योगी भोगी की रोटी पर जीवित रहता है, वह तो भोगी से भी
बुरा है। शास्त्रकारों ने तो योगियों को ‘मुधादायी’ और ‘मुधाजीवी’ लिखा है। देशना दे
वह भी स्व और पर के कल्याण के लिए ही और आहार भी संयम की पुष्टि के लिए ही ग्रहण
करता है। भोगी और योगी का धर्म-प्रयोजन के अतिरिक्त कोई संबंध ही नहीं होता है।
श्री महावीरस्वामी
के नाम से रोटी ही नहीं, अपितु सबकुछ मिलता है, यह सच है। किन्तु, भगवान श्री
महावीरदेव के शासन में विचरने वाले योगी, भोगी के मनुष्य तो
कदापि नहीं होते। ‘अन्नदाता दो’, यह तो भिखारी ही
कहता है। बाकी मुनि तो धर्मलाभ ही कहता है। सत्रह बार गरज हो, कल्याण दिखता हो तो
ही गृहस्थ दे। मुनि के पास तो केवल धर्मलाभ ही होता है। दे तो भी धर्मलाभ, न दे तो भी धर्मलाभ।
एक समान ही प्रसन्नता रहती है। मुँह भी बिगाडता नहीं है। धक्का मारे तो भी धर्मलाभ
ही कहता है। विधि कैसी उत्तम है? श्रावक क्या कहता है? ‘पधारो, पावन करो, निस्तार करो, लाभ दो।’ लाभ लो नहीं, अपितु दो। देता तो
स्वयं है, परन्तु कहता है कि लाभ दो। घी का बर्तन उंडेल देता है, वह भी उसका स्वयं का
निस्तार मानकर ही। याचक बनेंगे तो यह भावना नहीं रहेगी। रोटियां देने वाले की
आज्ञा में रहेंगे तो क्या होगा? स्व-पर दोनों का नाश ही होगा और बाद में तो मुँह ही
देखना पडेगा। यह अमुक भाई है और यह अमुक भाई! ‘पधारो और पावन करो’, यह क्यों? तारक मानता है, इसीलिए ही। देने
वाला तो कहता है कि लो-लो और लेने वाला कहता है कि नहीं-नहीं, क्यों? दूसरे दिन रख नहीं
सकता है, इसीलिए।
शास्त्रों में मुनि
को कुक्षिसंबल कहा है। इसलिए संयम निर्वाह के लिए जब आवश्यक हो तभी लेने जाता है।
जो रखने का कहा होता, तो-तो आप लोग बुलाने भी नहीं आते। भगवान का मार्ग ही
ऐसा है कि गृहस्थ लोग बुलाते रहें और मुनि लोग ना-ना कहते रहें। मुनि लोग अधिक
नहीं ले सकते हैं कि गृहस्थ बुलाते रुक जाएं। श्री जिनेश्वरदेव का साधुत्व भी
लोकोत्तर है। ऐसे लोकोत्तर साधुत्व के पालक और प्रचारक, भगवान श्री
महावीरदेव के योगी, भोगियों की गुलामी नहीं ही करते हैं और तो ही वे
भगवान श्री जिनेश्वरदेव के मोक्षमार्ग की सच्ची उपासना और उसका सच्चा प्रचार कर
सकते हैं। आज जो कतिपय वेशधारी गृहस्थों के पिछलग्गू बने फिरते हैं, वे धर्म शासन को
कलंकित ही करते हैं, इसमें उनका तुच्छ स्वार्थ है और वे स्वयं का और दूसरे
का भी नाश ही करने वाले हैं।-सूरिरामचन्द्र
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