आज धर्म का माल लेने वाले थोडे हैं और माल देने वाले बहुत हो गए हैं। इसलिए
धर्म का माल नीलाम हो रहा है, ऐसा अनुभव होता है। माल अधिक हो और खपत कम
हो, इस तरह हर किसी को धर्म चिपकाने के प्रयत्न हो रहे हैं। ज्ञानी तो कहते हैं कि
धर्म ‘पात्र व्यक्ति’
को ही देना चाहिए, हर किसी को नहीं। धर्म बहुत
मंहगी वस्तु है। मांगने आने पर इसकी कीमत समझाकर देने जैसी यह चीज है। परन्तु आजकल
तो प्रायः धर्म का नीलाम हो रहा है। नीलाम में रुपये का माल पैसों में बिकता है।
ऐसी अधो दशा आज धर्म की हो रही है।
संसार के प्रति अरुचि न हो तो, धर्म किस काम का? अधिक
प्राप्त करने के लिए धर्म किया जाता हो तो वह धर्म, धर्म रहता ही नहीं, धंधा
हो जाता है, बिना पैसे के धंधे जैसा। कई लोग अपने व्यापार को बढाने के लिए मन्दिर दर्शन
करने जाते हैं,
उन्हें होंश ही नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं? भगवान
को व्यापार में भागीदार बना रहे हैं? मुझे इतना लाभ होगा तो आपको
इतना प्रतिशत भेंट करूंगा। उन्हें ऐसा करते हुए शर्म भी नहीं आती? जो
अपार रिद्धि-सिद्धि को ठोकर मारकर निकल गए, जो भगवान वितरागी हैं, राग-द्वेष, मोह-माया
रहित हो गए हैं,
जिनका कोई परिग्रह नहीं है, उनसे सौदा कर रहे हैं? उन्हें
व्यवसाय में भागीदार बना रहे हैं और उनकी सेवा में लगे देवों को कमीशन एजेंट, दलाल
बना रहे हैं?
यह कैसा पागलपन है? -सूरिरामचन्द्र
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