‘आत्मा
का धर्म क्या है?’,
यह यथार्थरूप में जिस दिन समझ में आ जाएगा, उस
दिन जो आनंद,
सुख और शान्ति का अनुभव होगा, वह अलौकिक होगा। यदि
सभी को अपनी यथार्थ स्थिति का ध्यान हो जाए, तो वर्तमान अशान्ति सहज ही
में नष्ट हो जाए। आत्मा का धर्म क्या हो सकता है, उसे विकसित करने के
लिए क्या करना चाहिए?
इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त करके, उस
पर अमल करने का भाव जब तक नहीं जागेगा, तब तक आत्मा का साक्षात्कार
नहीं होगा। ऐसा भाव (अर्थपना) प्राप्त होना, यह एकाएक संभव नहीं। परन्तु, सद्गुरु
के सान्निध्य में आकर,
ग्राह्य पदार्थों से चित्त को हटाकर, 24 घंटों में एकआध घडी भी शान्तचित्त से आत्मस्वरूप का प्रतिदिन चिंतन किया जाए, तो
धीरे-धीरे उसकी अनुभूति या झलक प्राप्त हुए बिना नहीं रहेगी।
प्रत्येक व्यक्ति को इतना तो कबूल करना ही पडेगा कि ‘यह
शरीर वह आत्मा नहीं है’। आत्मा शरीर से भिन्न कोई अदृश्य वस्तु है और इसलिए आयुष्य के अंत में वह
शरीर को यहीं छोडकर चली जाती है। आत्मा, इहलोक व परलोक आदि समस्त
पदार्थ बुद्धि और तर्क संगत हैं। एक ही समय में उत्पन्न आत्माओं में परस्पर
भिन्नता दृष्टिगत क्यों होती है? एक का जन्म उत्तम कुल में होता है तो
दूसरे का अधम कुल में। एक ही मां-बाप से जन्में पुत्रों में एक अधिक बुद्धिशाली
होता है, दूसरा मंदबुद्धि होता है। एक में शक्तियां विकसित होती है तो दूसरे में उन
शक्तियों के विकास हेतु वर्षों लग जाते हैं। इन सबका कारण क्या? अवश्य
इनमें कोई न कोई पूर्व जन्म का योग, संस्कार एवं सामग्री कारणभूत
है। इसी कारण शरीर और आत्मा में भिन्नता है। इससे यह सिद्ध होता है कि शरीर के
धर्म, आत्मा के धर्म नहीं हैं।-सूरिरामचन्द्र
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