शक्य हो तो दूसरे को सुखी बनाने का और शक्य न हो तो भी कम से कम दूसरे को
दुःखी नहीं बनाने का विचार जिस आत्मा में प्रकट होता है, वह
आत्मा क्रमशः स्वयं की उन्नति सिद्ध कर सकती है। आत्मा किसी भी काल में संसार के
समस्त जीवों को सुखी बना देने का सामर्थ्य प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु
आत्मा में ऐसा तो हो सकता है कि संसार के किसी भी जीव के दुःख का कारण वह नहीं बने, उसका
पद भव्यात्माओं के लिए सुख का प्रेरक बने। ऐसी आत्मदशा, अर्थात्
आत्मा का ऐसा सुविशुद्ध स्वरूप प्राप्त करने के लिए ही सुख के अर्थी आत्माओं को
प्रयत्न करना चाहिए। यह प्रयत्न तभी हो सकता है, जब आत्मा में
प्राणीमात्र के प्रति कल्याण की भावना हो।
जिसको आत्मा का विचार नहीं और परभव का खयाल नहीं, ऐसा
व्यक्ति परोपकार की चाहे जैसी बात करे, वह सच्चा परोपकारी नहीं बन
सकता। इस भव के सुख के लिए जिसको हिंसक पशुओं का भी विनाश करने का मन होता है, वह
आदमी दुनिया में चाहे जितने भी ऊॅंचे पद पर चढा हो, तत्त्वज्ञानी
महात्माओं की दृष्टि से तो वह अधम कोटि का ही है। आत्मा के सुख का जिसको खयाल नहीं
और पौद्गलिक सुख,
यही जिसका साध्य हो, वैसी आत्माओं का जीवन तो जगत
के जीवों के लिए केवल श्रापभूत ही है। ऐसी आत्माओं को उसके पूर्व के पुण्य योग से
प्राप्त हुई बुद्धि,
शक्ति और सामग्री जगत के जीवों के लिए एकान्ततः अकल्याण का
कारण बनती है और इससे ऐसे आत्माओं का स्वयं का भविष्य भी अंधकारमय बन जाता है।-सूरिरामचन्द्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें