शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

पहले बुरी संगति और बुरे विचारों को त्यागें


मनुष्य जैसी संगति में रहता है, जैसे वातावरण में रहता है, जैसे विचार करता है, जैसा संकल्प करने लगता है, वैसा ही आचरण करता है और जैसा आचरण करता है, फिर वैसा ही बन जाता है। जिन बातों का बार-बार विचार करता है, धीरे-धीरे वैसी ही इच्छा हो जाती है, फिर उसी के अनुसार वार्ता, आचरण, कर्म और कर्मानुसारिणी गति होती है। स्पष्ट है कि अच्छे आचरण एवं चरित्र के लिए अच्छे विचारों को लाना चाहिए और इसके लिए अच्छी संगति और आसपास का वातावरण अच्छा होना चाहिए।

बुरे कर्मों को त्यागने से पहले बुरी संगति, बुरे विचारों को त्यागना चाहिए। जो बुरी संगति, बुरे विचारों का त्याग नहीं करता, वह बुरे कर्मों से छुटकारा नहीं पा सकता। कर्म का आधार विचार हैं। कितने ही व्यक्ति दुराचार, दुर्विचारजन्य दुर्व्यवहार आदि को छोडना चाहते हैं। मद्यपायी, वेश्यागामी व्यसनों के कारण दुःखी होता है। वह व्यसन को छोडना चाहता है। उपाय भी ढूँढता है, सत्पुरुषों के पास रोता भी है, छोडने की प्रतिज्ञा भी कर लेता है, परंतु जो सावधानी पूर्वक दुराचारों के बराबर चिंतन और मनन का परित्याग करता है, उसका स्मरण ही नहीं आने देता, विचार आते ही उसे काट देता है तो छुटकारा पा जाता है, परंतु जो बुरे विचारों को न छोडकर, उन विचारों में रस लेता रहता है, वह कभी बुरे कर्मों से छुटकारा नहीं पा सकता, वह बार-बार प्रतिज्ञा तोडता और पछताता है।

जो बुरी संगति, बुरे विचारों के समय असावधान रहता है। साथ बैठने से क्या होता है? विचार से क्या बुरा होता है? बुरा कर्म नहीं करूँगा, उसी के त्याग की मैंने प्रतिज्ञा की है, इस तरह अपने आपको धोखा देकर बुरे विचारों का रसपान करता रहता है, वह कभी व्यसन से मुक्त नहीं हो पाता है। इसीलिए व्यक्ति को चाहिए कि वह किसी तरह बुरे विचारों को हटाए, उन्हें अपने आसपास कभी फटकने ही न दे। जिस समय बुरे विचार आने लगें, उस समय वह मन को दूसरी तरफ ले जाने का प्रयत्न करे। भगवान के ध्यान से, मंत्र जाप से, सत्संग से बुरे विचारों की धारा को तोड दे। इसी तरह अच्छे कर्मों के लिए पहले अच्छे विचारों को लाना चाहिए। अच्छे शास्त्रों का अभ्यास, अच्छे पुरुषों का संग करना और पवित्र वातावरण में रहने से अच्छे विचार बनते हैं। बुरे विचार और कर्म छूट जाते हैं।

वैसे मन का सहसा संकल्प-विकल्प से रहित होना कठिन है, पर प्रयास मनोनिग्रह का चलता रहना चाहिए। बुरे विचारों को रोककर, सात्विक विचारों की धाराओं को बढाकर, सात्विक वृत्तियों से तामसिकता काटकर धीरे-धीरे सात्विक वृत्तियाँ विकसित की जा सकती है। इसके लिए सुदेव, सुगुरु और सुधर्म का सान्निध्य, आश्रय और नियमित स्वाध्याय कारगर उपाय हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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