सोमवार, 28 अप्रैल 2014

धर्म से प्राप्त सुख-सामग्री का उपभोग



सुख धर्म से ही प्राप्त होता है और वह भी हम जिस प्रकार का धर्म करेंगे, वैसा ही प्राप्त होगा’, इस श्रद्धा में अभवी, दुर्भवी, कठोर कर्मी भवी और दुर्लभ बोधि ये चारों दृढ हो सकते हैं; परन्तु इस श्रद्धा का जैन शासन में कोई मूल्य नहीं है। धर्म से आत्मिक गुणों का आविर्भाव होता है’, इस श्रद्धा का जैन शासन में मूल्य है।


लगभग समस्त विश्व को दो वस्तुओं के अतिरिक्त तीसरी वस्तु में कोई अभिरुचि नहीं है। एक रुचि संसार-सुख की है और दूसरी रुचि संसार-सुख की प्राप्ति के लिए अनिवार्य माने जाने वाले दुःख की है। इनके अतिरिक्त किसी में भी उसकी रुचि नहीं है। संसार-सुख प्राप्ति के लिए दुःख सहन करने को आप तैयार हैं, परन्तु धर्म के लिए दुःख सहन करने को कौन तैयार है? धर्म के लिए दुःख सहन करने वाले तो कोई विरले ही होते हैं।


दुष्ट-विद्याओं (मेली-विद्याओं) की साधना करने के लिए भी अमुक प्रकार के कुछ कष्ट सहन करने के लिए तत्पर रहना पडता है। अमुक प्रकार के सुखों को ठोकर मारने की सामर्थ्य रखने वाला व्यक्ति ही उन विद्याओं की साधना कर सकता है। कुछ वर्ष पूर्व मोहम्मद छैल नामक एक व्यक्ति हो चुका है। उसने कोई विद्या सिद्ध की थी, पर विद्या सिद्ध करने से पूर्व उस विद्या के अधिष्ठाता को उसने वादा किया था कि आपकी सहायता से प्राप्त किसी भी चीज का मैं व्यक्गित उपभोग नहीं करूंगा। यह प्रण करने पर उक्त विद्या सिद्ध हो गई। वह मोहम्मद छैल अपनी विद्या से मिठाइयों से भरा थाल उत्पन्न करता और अनेक मनुष्यों को मिठाई खिलाता, परन्तु स्वयं रूखा-सूखा खाकर ही जीवन निर्वाह करता और वह आजीवन निर्धन ही रहा। साधारण साधना के लिए भी यदि इतना त्याग आवश्यक माना जाता हो तो धर्म के लिए तो कितना त्याग करना पडता है? आप धर्म के लिए त्याग करो तो ही धर्म आपको सुख देगा।


यदि उस सुख का आप आनन्द से उपभोग करो तो धर्म रूठ कर चला जाएगा। एक सामान्य विद्या की सुरक्षा के लिए उस विद्या से प्राप्त होने वाली सामग्री का उपभोग नहीं किया जा सकता, तो फिर धर्म की रक्षा के लिए, धर्म कायम रखने के लिए उससे प्राप्त होने वाली सुख-सामग्री का आनन्द से उपभोग कैसे किया जा सकता है?


पुण्य से प्राप्त सुख-सामग्री का यदि हम आनन्द से उपभोग करें तो अपना पुण्य नष्ट हो जाता है और ऐसे पाप बंधते हैं कि भवान्तर में भीख मांगने पर भी खाने-पीने और पहनने-औढने के लिए न मिले। आप यह बात अच्छी तरह स्मरण रखें कि पुण्य से प्राप्त सुख-सामग्री का सुरुचि पूर्वक उपभोग करना अर्थात् अपने हाथों अपनी दुर्गति का द्वार खोलना है, इसलिए उसमें रस न लें।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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