रविवार, 14 सितंबर 2014

सच्ची कुलीनता


पाप से बचने का प्रयत्न ही वास्तविक कुलीनता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा संसार के त्याग और मोक्ष की साधना में ही प्रयत्नशील रहती है, उसी प्रकार कुलीन आत्मा पाप से बचने के सुप्रयत्न में लीन रहती है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा को समस्त संसार कडवा लगता है, उसी प्रकार कुलीन आत्मा को पाप कडवा लगता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा पूर्व के कर्म बंधन के अतिरिक्त संसार में नहीं रह सकती, उसी प्रकार कुलीन आत्मा तीव्र अशुभ उदय के बिना पाप की ओर प्रवृत्त नहीं होती।

जिन आत्माओं ने पाप का भय त्याग दिया है, वे सम्यग्दृष्टि तो हैं ही नहीं, कुलीन भी नहीं हैं, क्योंकि पाप से निर्भीकता के समान अन्य कोई अयोग्यता ही नहीं है। जिस आत्मा को पाप का भय नहीं है, वह आत्मा चाहे जैसी भी हो तो भी अयोग्य ही है। ऐसी आत्मा को तो भगवान का शासन धर्म की अधिकारी भी नहीं मानता।

अतः स्पष्ट है कि जो लोग निर्भयता के नाम पर यथेच्छ प्रवृत्तियां चलाते हैं और उन्हें वे धर्म के रूप में प्रकाश में लाते हैं, वे अपने स्वयं के संहारक होने के साथ अज्ञानी लोगों के भी संहारक होते हैं। इस कारण ऐसी संहारक आत्मा की किसी भी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देना अपनी कुलीनता का भी संहार करने जैसा है।

उत्तम आत्माएं अपनी बुद्धि और वाणी के बल से पाप-कृत्य पर उतारू सामने वाली आत्मा को भी पाप से बचा लेती है। ऐसी आत्मा मिथ्या-दया के लिए दूसरे की पाप-याचना के अधीन होकर स्वयं भी पाप करने के लिए तत्पर नहीं होती और यही सच्चा विवेक कहलाता है।

परोपकार के नाम पर पाप के प्रति रुचि और पाप की ओर प्रवृत्ति होने का उत्साह, यही एक प्रकार की भयानक कुलहीनता है। इस प्रकार की कुलहीनता में पडी आत्माओं की ओर से की जाने वाली तथाकथित परोपकार की बातों से बचाने के लिए ही श्री जैन शासन ने वचन-विश्वास के बनिस्पत पुरुष-विश्वास को विशेष महत्त्व दिया है और ऐसे पुरुष के रूप में केवल श्री अरिहंत देव को ही स्वीकार किया है। फिर स्पष्ट किया गया है कि उपकार सिर्फ अरिहंत देव की आज्ञा में ही है। अतः सच्चे उपकारी तो उन्हें ही मानना चाहिए, जिन्होंने श्री अरिहंत देव की आज्ञा स्वीकार की है और जो संसार को केवल उनकी आज्ञा-पालन में ही लीन बनाना चाहते हैं।

केवल परोपकार की बातें करने वाले लोग वास्तविक रूप से परोपकार और धर्म की आराधना नहीं कर सकते। परोपकार की भावना और धर्म तो हमारे रोम-रोम में व्याप्त होना चाहिए, यही सच्ची कुलीनता है। इसलिए पाप से डरें, पाप से बचें, अरिहंत देव की आराधना और उनकी आज्ञा की अनुपालना में लीन बनें।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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