मंगलवार, 2 सितंबर 2014

सच्चा शिक्षण


मौज-शौक के खर्चे से ऐसा पाप बंधता है कि भवांतर में भीख मांगने पर भी पैसे नहीं मिलते। अनीति लाभान्तराय का बंध कराती है और मौज-शौक भोगान्तराय का बंध कराता है। यह सब आज आपको नहीं सीखना है। सीखोगे तो आपके मौज-शौक में बाधा पडेगी और दुर्गति में घूमने जाने के द्वार बंद हो जाएंगे। आपने आपकी संतानों को जिस प्रकार पढाया है, उसको देखते हुए यह नहीं माना जा सकता कि आप में सम्यग्दर्शन है। आपने उन्हें ऐसा शिक्षण दिलाया है कि वे आपको पाठ पढावें, यहां तक तो ठीक, परन्तु आपको ही उठालें तो कोई अचरज की बात नहीं। शिक्षण किसे कहा जाए? इसकी समझ आज न तो मां-बाप को है और न शिक्षकों को। और ये सब शिक्षण देने निकले हैं। ऐसे शिक्षण से तो आज पागलों की पैदावार बढ रही है। सुख में विराग और दुःख में समाधि, यह भगवान अरिहंत देवों द्वारा जगत को दिया गया ऊॅंचे से ऊॅंचा शिक्षण है। ऐसे शिक्षण में प्रायः संघ के अधिकांश लोगों की रुचि नहीं है, इससे बहुत विकृतियां हो रही हैं। आप अपनी संतानों को स्वार्थ के लिए ही पढाते हैं। शिक्षण देकर भी आप अपकार कर रहे हैं। ज्ञान का दान करके भी अज्ञानी बनाने का काम आपने शुरू किया है। ये कमाकर लावें, यही आप चाहते हैं, परन्तु असंतोष की आग में ये जल मरें, इसकी आपको चिन्ता नहीं है। संतान को कमाने के लिए पढावे, वह जैन नहीं। पेट के लिए विद्या पढाना यह पाप है। आज तो सा विद्या या विमुक्तयेका बोर्ड लगाकर ठगने का धंधा किया जाता है, क्योंकि आज के शिक्षण में मुक्ति की तो कोई बात होती ही नहीं। सा विद्या या विमुक्तयेका अर्थ तो यह कि जो विद्या मुक्ति का बोध दे, लेकिन आज के स्कूल-कॉलेजों में मुक्ति के शिक्षण का स्थान तो स्वच्छंदता और विनाशक-विज्ञान ने ले लिया है। सारी पीढी बिगड रही है, यह आप आँखों से देख रहे हैं, फिर भी हम से पूछते हैं कि शिक्षण में खराबी क्या है?’, यह क्या अभी निर्णय करना शेष रह गया है? खराबी न हो तो संतान बिगड गई है’, ऐसी बूम क्यों मारते हो?

जीवन का निर्माण बाल्यकाल से प्रारम्भ हो जाता है। बच्चों को हृदय की पवित्रता का मूल्य उतना नहीं बताया जाता, जितना दूसरी चीजों का बताया जाता है। आज शिक्षा में नैतिक अवमूल्यन की समस्या पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। हृदय की पवित्रता केवल साधुओं के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, शासकों और परिवार के सदस्यों के लिए भी बहुत जरूरी है। साधारण व्यक्ति प्रवाह के पीछे चलता है। यथा राजा तथा प्रजाकहावत ही नहीं, यथार्थ है। जब एक व्यक्ति किसी भी उचित-अनुचित ढंग से सत्ता प्राप्त कर तथाकथित बडा आदमी बन जाता है, तब दूसरा आदमी भी सोचता है कि भ्रष्ट तरीके से पैसा कमाकर बडा आदमी बना जा सकता है। राजनीति जीवन का अंग हो गई है, लेकिन यह जीवन कदापि नहीं है। सत्ता पर जब धर्म का अंकुश नहीं रहता, तो वह निरंकुश हो जाती है। सत्ता राष्ट्र की हो या परिवार की, उस पर से जब-जब धर्म का अंकुश हटता है, तब-तब वह उन्मादी हो जाती है। प्रवाह को वही मोड सकता है, जो असाधारण हो, सत्ता और अर्थ प्राप्ति के लिए भ्रष्ट उपायों का सहारा न ले।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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