सोमवार, 15 सितंबर 2014

आत्मदाह अज्ञान की चरम सीमा


पति के अभाव में पतिव्रता स्त्रियों का जीवन प्रायः दुःखी ही होता है, जिससे वे पति के वियोग में शोक के कारण अग्नि में प्रवेश करती हैं, यह कहकर कि पति के शोक से पतिव्रता स्त्रियों का अग्नि में प्रवेश करना उचित है। यह कहना भारी अज्ञानता है। इस प्रकार की ध्वनि वहीं से आती है, जहां अज्ञान का साम्राज्य होता है।

पतिव्रता स्त्रियां पतिव्रत धर्म का पालन करें। जहां तक वे पत्नी हैं, तब तक उन्हें अन्य पुरुष को पति के रूप में स्थान नहीं देना चाहिए। उन्हें चाहिए कि वे पति की समस्त शुभ प्रवृत्तियों में मन, वचन और देह से सहायक हों, पति की समस्त विपदाओं को अपनी मानकर उन्हें शान्तिपूर्वक सहन करें और कुमार्ग गामी पति को सुमार्ग गामी बनाने का प्रयत्न करें। पतिव्रता स्त्रियों का यह कर्तव्य है, परन्तु पति की सेवा को ही धर्म मानकर परम् तारणहार परमात्मा की, सद्गुरुओं की और धर्म की सेवा को गौण मानना और पति के पीछे मर जाना किसी भी प्रकार से धर्म नहीं है। यह तो अज्ञान की चरम सीमा है।

पति के शोक में अग्नि में प्रविष्ट होना तो अज्ञान-मृत्यु है। इस प्रकार की मृत्यु से न तो उसे पति मिलता है और न वह सद्गति ही प्राप्त करती है। ऐसी मृत्यु प्रायः आत्मा को दुर्ध्यान-मग्न बनाकर भयानक दुर्गति में ही धकेलती है। अतः इस प्रकार की मृत्यु का विचार भी अज्ञान है, तो फिर मृत्यु का तो कहना ही क्या?

संसार और संसार के संबंधों के स्वरूप की ज्ञाता आत्मा तो कदापि इस प्रकार का अज्ञानपूर्ण कार्य नहीं करती। इतना ही नहीं, ऐसा मनुष्य तो ऐसे समय पर किसी विशिष्ट धर्म की ओर ही प्रेरित होता है और पत्नी के रूप में रखे हुए मोह का पश्चाताप करता है तथा सोचता है कि कर्म योग से प्राप्त ऐसे अल्पकालीन पति की सेवा में समय व्यतीत किया, इसके बदले परमात्मारूपी वास्तविक पति की सेवा में यदि समय व्यतीत किया होता तो आज मेरी आत्मा कर्म के बोझ से अत्यंत हल्की हो गई होती।

यही बात उन लोगों से भी कहनी है जो विपरीत संयोगों से घबराकर आत्महत्या, आत्मघात का कदम उठाते हैं, इसमें क्रूरता भी है और कायरता भी। असीम पुण्योदय से प्राप्त मनुष्य जीवन का इस प्रकार सांसारिक कारणों से घात करना किसी भी रीति से उचित नहीं ठहराया जा सकता, यह राग-द्वेष का सबसे घिनौना रूप है, जो तिर्यंच और नरक गति में ले जाने वाला है और कई जन्म बिगाडने वाला है। मनुष्य जन्म पूर्व भवों के कर्मों को खपाकर आत्मा को हल्की करने और मोक्षगामी बनाने के लिए है, न कि आत्मघात का महापाप कर कीडे-मकोडे बनने के लिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें