बुधवार, 3 सितंबर 2014

शास्त्रों में मस्त, रहता है स्वस्थ


एक बादशाह था। वह बडा ही दयालु और परोपकारी था। सभी का आदर करना और विनम्रतापूर्ण व्यवहार करना उसके स्वभाव का स्थायी अंग था। उसकी अपने राज्य के एक साधु के प्रति बडी श्रद्धा-भक्ति थी। वह साधु अपने शिष्यों के साथ राजधानी से दूर किसी दूसरे नगर में बिराजमान था। वहां कोई अच्छा इलाज करने वाला नहीं था।

एक दिन बादशाह ने सोचा कि यदि उन साधु के उपाश्रय में कोई बीमार हो जाए तो बडी परेशानी होगी, इसलिए उसने अपने शाही हकीम से कहा कि तुम उस नगर में जाकर रहो और यदि साधु या उनका कोई शिष्य बीमार पड जाए तो समय पर उनका उपचार करना। हकीम वहां पहुंच गया।

दिन पर दिन बीतते गए, किन्तु साधु के उपाश्रय से कोई भी हकीम के पास उपचार के लिए नहीं पहुंचा। हकीम खाली बैठे-बैठे परेशान हो गया। जब काफी वक्त गुजर गया, दिन-सप्ताह-महीने बीत गए तो वह साधु के पास गया। उसने देखा, यहां तो हर कोई शास्त्राभ्यास में और अपनी-अपनी क्रिया में व्यस्त है, सभी के आभामण्डल खिले हुए हैं और चेहरे तेजोमय हैं। वह पहले तो सहम गया, लेकिन फिर भी चूँकि राजा ने उसे उपचार के लिए भेजा था तो उसने साहस कर राजा के गुरु से पूछा- महाराज! मुझे बादशाह ने आपके शिष्यों का उपचार करने के लिए भेजा है, किन्तु इतने महीनों में कोई भी मेरे पास नहीं आया। इसका कारण क्या है?’

साधु ने जवाब दिया- हकीमजी! मेरे शिष्य दिन-रात अप्रमत्त भाव में शास्त्राभ्यास और स्वाध्याय में ही व्यस्त रहते हैं, उन्हें शास्त्रों के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं। उनकी आदत है कि जब तक उन्हें जोर की भूख नहीं लगती, वे खाना नहीं खाते। जब खाते हैं, तब थोडी भूख रहते खाना छोड देते हैं।

हकीम समझ गया कि ऐसी जगह रोग नहीं आ सकता। उसी समय उसने वह स्थान छोड दिया।

कथा का सार यह है कि स्वस्थ रहने के लिए यह जरूरी है कि व्यक्ति अपने लक्ष्य के प्रति पूरी तरह सर्वतोभावेन समर्पित रहे, दिन-रात उसका चिंतन आत्म-केंद्रित रहे। शास्त्राभ्यास और स्वाध्याय में मस्त और व्यस्त रहे, कम व सुपाच्य भोजन किया जाए। इससे इन्द्रिय निग्रह को बल मिलता है, जो स्वस्थ और सुखी जीवन के लिए आवश्यक है।

प्रमाद महारोग है। प्रमाद पांच हैं- मद्य, विषय, कषाय, विकथा और निद्रा। विषय और कषाय यह भी प्रमाद हैं। इस रूप में जो प्रमाद के अधीन रहता है, वह बीमार रहता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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