बुधवार, 11 मार्च 2015

"भगवान की सौगंध"



आज तो ग्राहक को प्रसन्न करने के लिए धर्म की सौगन्ध भी खाई जाती है, यह भी कह दिया जाता है कि "भगवान को मध्य रखकर सत्य बात कह रहा हूं""भगवान की सौगंध" लेकर कोर्ट में झूठी गवाही दे दी जाती है। बताइए यह धर्म का सम्मान है या अपमान? ऐसे में धर्म की प्राप्ति कैसे हो सकती है भला? अनीति करते रहना और कहना कि "समय के अनुसार आवश्यक है"। गलत को समय के नाम पर सत्य बताना क्या ठीक है? साधु लोग यदि अधिक कहेंगे तो वे कह देंगे कि "ये लोग तो उपाश्रय में रहते हैं, इन्हें बाजार की हालत का क्या पता? निर्वाह का धन लाना कहां से?" धर्म कोई बाजारू वस्तु है जो धन के लिए धर्म को बाजार में घसीटा जाए? गलत हथकण्डों से धन प्राप्त करने के लिए धर्म का सहारा लिया जाए?

मैं कहता हूं कि जब तक इस प्रकार की मान्यता है, तब तक धर्म हृदय में प्रविष्ट नहीं होगा। धर्म को बाजार में न घसीटो। आपकी यह मान्यता दृढ होनी चाहिए कि "कम धन की प्राप्ति होगी तो कम ही सही, परन्तु पाप तो नहीं होगा, उसके लिए धर्म की आड तो नहीं ही ली जाएगी।" यह मान्यता यदि आपके हृदय में दृढ हो जाए तो काम हो जाए। धर्मनिष्ठ मनुष्यों के हृदय में पाप पर सद्भाव तो होना ही नहीं चाहिए।

पाप से बचने में प्रयत्नशील रहें

पाप से बचने का प्रयत्न ही वास्तविक कुलीनता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा संसार के त्याग और मोक्ष की साधना में ही प्रयत्नशील रहती है, उसी प्रकार कुलीन आत्मा पाप से बचने के सुप्रयत्न में लीन रहती है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा को समस्त संसार कडवा लगता है, उसी प्रकार कुलीन आत्मा को पाप कडवा लगता है। जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा पूर्व के कर्म बंधन के अतिरिक्त संसार में नहीं रह सकती, उसी प्रकार कुलीन आत्मा तीव्र अशुभ उदय के बिना पाप की ओर प्रवृत्त नहीं होती।

जिन आत्माओं ने पाप का भय त्याग दिया है, वे सम्यग्दृष्टि तो हैं ही नहीं, कुलीन भी नहीं हैं, क्योंकि पाप से निर्भीकता के समान अन्य कोई अयोग्यता ही नहीं है। जिस आत्मा को पाप का भय नहीं है, वह आत्मा चाहे जैसी भी हो तो भी अयोग्य ही है। ऐसी आत्मा को तो भगवान का शासन धर्म की अधिकारी भी नहीं मानता। अतः स्पष्ट है कि जो लोग निर्भयता के नाम पर यथेच्छ प्रवृत्तियां चलाते हैं और उन्हें वे धर्म के रूप में प्रकाश में लाते हैं, वे अपने स्वयं के संहारक होने के साथ अज्ञानी लोगों के भी संहारक होते हैं। इस कारण ऐसी संहारक आत्मा की किसी भी प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देना अपनी कुलीनता का भी संहार करने जैसा है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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