शुक्रवार, 6 मार्च 2015

संतान धर्महीन न बन जाए!



आज श्रावक-कुल जैसे उत्तम कुल के संस्कार कितने अधिक नष्ट हो गए हैं? घर के मुखिये को घर का कोई भी व्यक्ति आराधना से वंचित रह न जाए उसकी चिन्ता हो, ऐसे घर कितने हैं? आपको अपना पुत्र इज्जतदार, पेढीदार या धनवान बनाने की जितनी चिन्ता है, उतनी ही चिन्ता वह धर्म का आराधक बने इस बात की है क्या? पुत्र पेढीदार अथवा धनवान न बन पाए, उसमें अधिक हानि और चिन्ता है या वह धर्महीन बनकर इस मंहगे जीवन को नष्ट कर दुर्गति के कर्मों का बंध करे, उसमें अधिक हानि और चिन्ता है? पुत्र पूजा, सामायिक आदि न करे तो उसके लिए कितना खटकता है और विद्यालय अथवा दुकान पर न जाए तो उसके लिए कितना खटकता है? सचमुच, आज पारस्परिक सच्ची कल्याण भावना लुप्त होती जा रही है। आज तो प्रायः यह दशा है कि पिता, पुत्र, माता, भगिनी आदि संबंधी एवं स्नेही परस्पर आत्मा के शत्रु रूप बने हैं। इन आत्माओं की क्या दशा होगी, यहां से मृत्यु के पश्चात उनकी क्या गति होगी, उन्हें धर्म पुनः कब प्राप्त होगा और कब वह जन्म-मरण आदि के इन अनन्त काल से भोगे जाते दुःखों से मुक्त होंगे? इस प्रकार के वास्तविक कल्याणकारी विचार करने का भाव तो आज प्रायः नष्ट हो गया है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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