शनिवार, 28 मार्च 2015

जिनशासन का साधु महासुखी



संसार त्यागी सांसारिक भोगों का अर्थी कतई नहीं होता है। जो मोक्ष के लिए ही आज्ञाविहित जीवन जीता है, वही सच्चा त्यागी है और वह ही त्याग का सुख अनुभव कर सकता है। संसार का त्यागी यदि संसार का अर्थी होगा तो वह महादुःखी होगा, बाकी तो उसके जैसा कोई इस जगत में सुखी नहीं है। सच्चा साधु स्वयं अनन्तज्ञानी श्री जिनेश्वर देव की आज्ञा की आराधना करके स्वयं के आत्म-स्वभाव के प्रकटीकरण का समय निकट ला रहा है और अनन्त जीवों को अभयदान दे रहा है। ऐसे विचार से भी श्री जिनशासन का साधु महासुखी होता है। इससे स्पष्ट है कि श्री जिनशासन का साधु तो स्वयं के त्याग का फल त्याग के साथ ही भोगना चालू करता है। उसको संयम कष्टरूप नहीं लगता है। सच्चे साधुओं को कठोर तपस्या वाला संयम भी तकलीफरूप नहीं ही लगता है। दुनियादारी के भोग के पदार्थों का संग्रह नहीं और उसका रस भी नहीं, इसलिए उसको उन पदार्थों को प्राप्त करने की, रक्षण करने की या बढाने की चिन्ता होती नहीं है। साथ ही लुटजाने जैसी कोई चीज नहीं कि जिससे हृदय को आघात हो और रोना पडे। उनको शोक के समाचार आने वाले नहीं हैं, शारीरिक वेदना या उपसर्ग-परिषह के समय समभाव में रहने का प्रयत्न करते हैं, इसलिए समाधि रहती है। संयम का यह तो प्रत्यक्ष फल है न?

जिनाज्ञा पालन में ही सच्चा हित

संयम के सच्चे अर्थी संसार को दावानल आदि रूप मानने वाले होते हैं। इसीलिए वे किसी को भी संसार में रहने की प्रेरणा करें ही क्यों? उनकी भावना तो सब कोई संयम के उपासक बनकर संसार को छेदन करने वाले बनें, यही होती है। आत्मा के स्वरूप को प्रकट करने के ही एकमात्र हेतु से, श्री जिनाज्ञा के अनुसार संयमी बनने का ही एकमात्र ध्येय मनुष्य मात्र का होना चाहिए। इससे विपरीत ध्येय हो तो आत्मा का अहित हुए बिना नहीं रहेगा, यह निर्विवाद बात है।

जीवन में शक्यता के अनुसार श्री जिनाज्ञा का पालन करने में ही सच्चा हित समाया हुआ है। इसलिए जो संसार का त्याग नहीं कर सकते हों, वे भी गृहस्थावस्था में जितने अंशों में श्री जिनाज्ञा का पालन करने के लिए प्रयत्नशील बन सकें, उतने अंशों में कल्याण को प्राप्त कर सकते हैं। इस कारण से श्री जिनाज्ञा के अनुसरण में ही सर्वस्व को मानने वाले साधुओं का उपदेश इसी ध्येय वाला होना चाहिए।

संसार में रहने की इच्छा वाले जीवों के लिए सच्चे साधुगण बेकार जैसे ही होते हैं। कारण कि संसार में रहने के लिए वे मददगार नहीं बन सकते। सच्चे साधुगण तो संसार से मुक्त बनने में ही मददगार होते हैं। ऐसा होने पर भी, साधुगण स्वयं की तरफ से संसार के जीवों को जो अभय प्रदान करते हैं, उससे तथा योग्य आत्माओं में संसार से मुक्त होने की भावना को प्रकट करने के लिए जो शक्य प्रयास करते हैं, इत्यादि से विश्व के प्राणीमात्र के उपकारी तो हैं ही।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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