बुधवार, 4 मार्च 2015

वेशधारी वंचक शासन के लिए खतरनाक



आज वेशधारी वंचक लाखों रुपयों का व्यय उन्मार्ग की पुष्टि में करवा रहे हैं। अधर्म में भी धर्म मनवा कर वेशधारी वंचक उदार एवं विवेकी श्रावकों के धन का भी पानी करवा रहे हैं। जो क्षेत्र आज अभावग्रस्त हैं और जिन सुक्षेत्रों की पुष्टि एवं वृद्धि के लिए आज बहुत कुछ करने की जरूरत है, उन सुक्षेत्रों की ओर वेशधारी वंचक उदार श्रावकों के हृदय में अरुचि उत्पन्न कर रहे हैं और अपनी ख्याति आदि के लिए धर्म के नाम पर कितना ही धन व्यय करवा रहे हैं। इस प्रकार भी श्री जैन शासन पर आक्रमण करने वाले पुष्ट बनें और बढें, उन वेशधारी वंचकों की जय-जयकार होती रहे, ऐसा भी आज बहुत-बहुत हो रहा है। यह कतई उचित नहीं है। धन का व्यय करने वाला यदि धर्म के, शासन के लिए समर्पण की भावना से अनुप्रेरित होकर कर रहा है तो यह उसकी भावनाओं का शोषण है, इसमें शासन की हानि है। वेशधारी वंचक शासन को हानि पहुंचाने वाले हैं और आराधना के कार्य में विक्षेप डालने वाले हैं। भगवान की अनुपस्थिति में रक्षक तो वे ही हैं न? वे रक्षक ही भक्षक बन जाएं तो भयानक अनर्थ मचेगा ही, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। कोतवालों के वेश में चोर बने साधुओं से शासन श्रेष्ठ कैसे रह सकता है? जो पुण्यात्मा चकोर बनकर विराधना से बचेंगे और आराधना में तत्पर बनेंगे, वे इस काल में भी अपना कल्याण सर्वोत्तम प्रकार से कर सकेंगे, बाकी तो जिसका जैसा भाग्य !

वेशधारी वंचकों से सावधान

इस काल की महिमा यह है कि आज साधु वेशधारी वंचक शीथिलाचारी बहुसंख्यक हो गए हैं। जिस शासन के नाम पर ये मौज करते हैं, जिस शासन के नाम पर ये मान-सम्मान का उपभोग करते हैं, जिस शासन के नाम पर ये लोगों में पूजे जाते हैं और जिस शासन के नाम पर ये संसार में गुरु बने घूमते हैं; उसी शासन के लिए ये वंचक शत्रु का कार्य करते हैं। जिनकी ओर से शासन की प्रभावना की आशा कर सकते हैं, वे ही शासन की बदनामी करते हैं और शासन की बदनामी के कारणभूत होते हुए भी ये शासन के प्रति वफादार निर्दोष एवं पवित्र मुनियों पर झूठे कलंक लगाते हैं।

यद्यपि शासन समर्पित साधुओं को वस्तुतः व्यक्तिगत आक्रमणों की परवाह नहीं होती, परन्तु उन वंचक वेशधारियों के पाप से कतिपय आत्मा सन्मार्ग से च्युत हो जाएंगे और वे उन्मार्ग पर बढ जाएंगे। ऐसे समय में कल्याणार्थियों को तो अधिकाधिक सावधान होना चाहिए। अशक्ति के कारण आराधना कम-अधिक हो, उसकी वैसी चिन्ता नहीं है, परन्तु आराधना के मार्ग से भ्रष्ट न हो जाएं, इसकी तो पूर्ण सावधानी रखनी चाहिए। जहां तक हो सके वहां तक आराधना अधिक करने की भावना तो सम्यग्दृष्टि की होती ही है, परन्तु किसी वंचक के जाल में फंसकर मार्ग न चूक जाएं, यह विशेष संभालने योग्य है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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