मंगलवार, 24 मार्च 2015

सभी वेशधारी वंदनीय नहीं होते



साधु को आप हाथ जोडते हैं, वंदन करते हैं, उनका स्वागत करते हैं और उनकी भक्ति करते हैं; इन सबके पीछे रहे हुए हेतु को बराबर समझना चाहिए। आज अधिकांश लोग इस कीमत को भूल गए हैं। इसलिए वे बडे आराम से कह देते हैं कि हमारे लिए तो सभी समान हैं और सभी पूज्य हैं। आज अधिकांश लोग कह देते हैं कि भगवान का वेश तो है न!किन्तु यह विचार नहीं करते कि नाटकीय पात्र राजा का वेश धारण करे, उससे राजा नहीं बन जाते और प्रजा भी उन पात्रों को राजा मान कर सम्मान नहीं देती है। राजा के समान या अधिकारी मानकर मान देने वाले मात्र उनके वेश को नहीं देखते, अपितु यह राजा है या नहीं, अधिकारी है या नहीं ऐसा भी देखते हैं। वेश की कीमत है, वेश की आवश्यकता है, किन्तु अकेले वेश से काम नहीं चलेगा, गुण तो होना ही चाहिए। आपको यह निश्चित करना है कि श्री जिनेश्वर देव के साधु की भक्ति भी संसार से छूटने के लिए ही करना है। इसलिए आडम्बरियों और ढोंगियों की पहचान के लिए उनकी ध्यानस्थ दशा देखो, ध्यानमग्नता देखो, मुख ऊपर की निर्दोषता देखो, उनकी दृष्टि और उनके प्रसंग देखो, उनके आचार-विचारों से सहज ही पता चल सकता है कि वे सच्चे साधु हैं या कि ढोंगी महाराज? इसके लिए पूरी गहराई से खोज करनी चाहिए और वे साधुता पर खरे उतरते हों तभी उनके प्रति पूरे समर्पण भाव से वंदन-व्यवहार करना चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें