शास्त्र ही जिनके चक्षु थे, शासन का अनन्य राग
जिनके रोम-रोम में व्याप्त था, शास्त्रों की वफादारी ही जिनका जीवन-मंत्र था, चाहे जैसा प्रलोभन देने पर भी जो सिद्धान्त से तनिक
भी आगे-पीछे होने के लिए तत्पर नहीं थे, जो विरोध के प्रचण्ड तूफानों में भी त्रिकालाबाधित
सिद्धान्तों तथा सनातन सत्यों का ध्वज फहराता रखने वाले थे और वीर शासन के अडिग
सैनानी थे; ऐसे 20वीं सदी में
जैन धर्म संघ के महानायक, श्रमण संस्कृति के उद्धारक,
पोषक, जैन शासन शिरताज, धर्मयोद्धा, व्याख्यान वाचस्पति, दीक्षायुगप्रवर्तक, विशालतपागच्छाधिपति पूज्य आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा ने दीक्षा के बाद कोर्ट कचहरी में भी जिन शासन की विजय पताका फहराई.
मुनिश्री रामविजयजी के अद्भुत् व्यक्तित्व और
प्रभावशाली प्रवचनों से आकर्षित युवकों और श्रीमंतवर्ग में भी दीक्षा लेने और साधु
बनने के लिए चाह पैदा हुई तो दूसरी ओर शुरुआत से ही दीक्षा का विरोध करनेवाला वर्ग
और उग्र बना। मुनिश्री रामविजयजी उनके लिए दुश्मन नम्बर एक बन गए। किसी भी व्यक्ति
के दीक्षा लेने के लिए तैयार होने पर विरोधी दीक्षा रोकने के लिए आकाश-पाताल एक कर
देते। दूसरी ओर मुनिश्री रामविजयजी की दृढता चट्टान जैसी थी। किसी भी कीमत पर अपने
निर्णय पर अमल करने के लिए वे दृढ रहते। इस तरह अपनी हिम्मत से वे किसी को भी
दीक्षा दे देते। इसके बाद भी आफतों का अंत नहीं होता था। दीक्षा के विरोधी साधु
बनने वाले के परिवार वालों को उकसाकर उनके नाम से कोर्ट में मुकदमे करवा देते थे।
इन सभी मुकदमों में मुख्य आरोपी के रूप में मुनिश्री रामविजयजी का ही नाम रहता।
जिस समय मुनिश्री रामविजयजी की दीक्षा हुई थी, उस समय पूरे
श्वेताम्बर जैन संघ में 150 साधु थे। संवत् 2047 में इनकी संख्या बढकर 6000 को पार कर गई। इसका
मुख्य श्रेय मुनिश्री द्वारा बनाए गए माहौल को ही जाता है।
मुनिश्री तिलकविजयजी नाम के एक साधु के दीक्षा लेने
पर उनकी सांसारिक पत्नी इतनी उत्तेजित हो गई कि उसने भरी सभा में मुनिश्री
रामविजयजी के कपडे फाडने का प्रयास किया, साथ ही उसने पुलिस में दर्ज करवाई रिपोर्ट में
मुनिश्री पर आरोप लगाया कि उन्होंने मुझे ओघे से पीटा। यह केस अहमदाबाद की कोर्ट
में चला। जिसमें गवाही देने के लिए मुनिश्री को जाना पडता। उनकी कार्यशैली, पैरवी, तर्क और पक्ष
प्रस्तुतिकरण इतना प्रभावी होता था कि संयोग से ही किसी केस में उन्हें वकील की
जरूरत होती। इस केस में भी आरोपी के कटघरे में प्रवेश से पूर्व उन्होंने ओघा से
जमीन का परिमार्जन करने के बाद, उसी ओघा को न्यायाधीश को बताकर उन्होंने कहा कि “हम साधु इसका उपयोग कीडे-मकोडे भी न मर जाएं, इसके लिए जमीन
परिमार्जन के लिए करते हैं। आप ही बताइए क्या कोई जैन साधु इसका उपयोग किसी को
मारने के लिए कर सकता है?” उनकी इस दलील को
न्यायमूर्ति अवाक सुनते ही रह गए।
मुम्बई में तथाकथित सुधारवादियों के बवाल, उग्र विरोध और हमला
करने की संभावनाओं के मद्देनजर डर के मारे समाज के कुछ अग्रणीय कहे जाने वाले
लोगों ने आचार्य भगवन् को सुरक्षा की दृष्टि से प्रवचन बंद रखने की सलाह दी तो
पूज्य श्री ने निर्भीकता से कहा, ‘हमारी सुरक्षा की आप तनिक भी चिन्ता न करें। हमारी
रक्षा करने वाला श्री जिनशासन जयवंत है। कोई हमारी रक्षा करेगा, इस विश्वास पर हमने यह
संयम अंगीकार नहीं किया है।’
मात्र दीक्षा देने के तथाकथित अपराध के कारण उन पर
अनेक केस मुम्बई, अहमदाबाद, बडोदरा और खंभात की अदालतों में चले थे। गवाही देने के लिए उन्हें लगभग 50 बार आरोपी के कटघरे
में खडा रहना पडा होगा। फिर भी उन्होंने अपने कदम वापस नहीं खींचे। इसी से उनके
साहसी और पराक्रमी जीवन का पता चल जाता है। वे वास्तव में एक धर्मयौद्धा थे।
प्रकाण्ड पाण्डित्य, गुरुजनों की असाधारण कृपा, अनुपम विद्वत्ता, अपूर्व वाकपटुता, अदम्य तर्क-शक्ति, उच्चकोटि के शिखरस्थ
विद्धानों को भी प्रभावित करने वाली वक्तृत्व शक्ति, श्रोताओं को मुग्ध करने वाली वेधक वाणी, सरल, सुबोध एवं हृदयगम्य
शैली में समझाने की अद्भुत् छटा, आप श्री के प्रवचनों से होती शासन रक्षा तथा
प्रभावना से प्रभावित गुरुजनों दादागुरु श्रीमद् विजयदानसूरीश्वरजी महाराजा और
पूज्यगुरुदेव श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजा ने विक्रम संवत् 1987 में मुम्बई भायखला में
सकल संघ की उपस्थिति में उन्हें अधिकृत रूप से ‘व्याख्यान वाचस्पति’ की उपाधि से विभूषित किया था। ज्ञात रहे कि ‘व्याख्यान वाचस्पति’ का मतलब होता है
व्याख्यान के विषय में सब कुछ जानने वाला और समग्र मुनि समुदाय में उस समय इस
महापदवी से अलंकृत दो ही आचार्यदेव थे। एक आचार्यदेव श्री वि. लब्धिसूरीश्वर जी और
दूसरे आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वर जी म.।
जैन शासनसिरताज व्याख्यानवाचस्पति पूज्य आचार्यश्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा को विक्रम संवत् 1987 में ही कार्तिक वदी 3 को मुम्बई में गणि पंन्यास पद, विक्रम संवत् 1991 में चैत्र सुदी 14 को राघनपुर में
उपाध्याय पद, विक्रम संवत् 1992 में वैशाख सुदी 6 को मुम्बई में आचार्य पद प्रदान किया गया। उनका
स्वर्गारोहण 96 वर्ष की आयु में विक्रम संवत् 2047 की आषाढ वदी 14 को अहमदाबाद में हुआ। पूरी सजगता के साथ उनके मुंह
से अंतिम शब्द निकला-‘अरिहंत’ और वे स्वर्ग सिधारगए।
उन्होंने 79 वर्ष तक उत्कृष्ट संयम साधना कर प्रभु महावीर के
शासन को खूब दिपाया। वे 56 वर्ष तक आचार्य पद पर रहे और उनके स्वर्गारोहण के समय उनके लगभग एक हजार
आज्ञानुवर्ती साधु-साध्वियों की विशाल सम्पदा थी। आज उनके संघ में लगभग 1400 साधु-साध्वीजी
उत्कृष्ट संयम का पालन कर रहे हैं।