सोमवार, 31 दिसंबर 2012

क्या वे झगडालू आचार्य थे?(3)


बत्तीस बत्तीसी’ - ‘द्वात्रिंशद्-द्वात्रिंशिकानाम का एक महान ग्रंथ है, उसमें उपाध्याय जी महाराज ने कहा है- आप धर्मशील होंगे तो जो सुजन नहीं हैं, ऐसे लोग कहेंगे कायरहै।

पराक्रम दिखाएंगे तो कहेंगे झगडालूहै।

आपके स्वभाव में उदारता होगी तो कहेंगे कि उडाऊहै।

विवेक सहित खर्च करेंगे तो कहेंगे मक्खीचूसहै।

अगर हंसकर किसी के साथ बात करेंगे तो कहेंगे वाचालहै, अवश्य हमसे कुछ निकलवाना होगा।

नहीं बोलेंगे, ‘मौनरहेंगे तो कहेंगे कि गूंगाहै। बोलता ही नहीं है।

इस प्रकार एक-एक सद्गुण के सामने दोष दृष्टि वाले दोष ढूंढकर न दिखाए तो ही आश्चर्य होगा। अतः कोई भी प्रवृत्ति-वृत्ति दोषयुक्त है या गुणयुक्त, यह निश्चित करने के लिए भी संसार की नापपट्टी से नहीं, बल्कि वीतराग-शासन की नापपट्टी से ही नापना पडेगा।

आप अगर किसी साधु को, सच्चे साधु को, चाहे कितना ही जिद्दी कहें तो क्या वे अपना रजोहरण, धर्म शास्त्र, धर्म शास्त्र की आज्ञा और साधुत्व छोड दे? स्वतंत्रता संग्राम में लोग झण्डा पकड कर चलते, पुलिस का डंडा झेलते। खुद के गिरने तक डंडे की मार झेलते और झण्डे को पकडकर रखते। जब खुद गिरने लगते तो पहले झण्डा अपने साथी के हाथों में थमा देते, किन्तु ध्वज को कभी झुकने या गिरने नहीं देते। आपने सुना ही होगा। कई वृद्ध जनों ने देखा भी होगा। इसे आप क्या कहेंगे? जिद्द! हठधर्मिता!! अगर तब उन्हें जिद्दी कहते तो क्या वे झण्डे को छोड देते? नहीं। उसी प्रकार सिद्धान्त के बारे में भी सच्चे धर्मोपदेशक जोरशोर के साथ सत्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन करें तो उन्हें खिताब दिया जाएगा- झगडालू। तो इसे सुनकर धर्मोपदेशक अपने सिद्धान्तों को त्याग दे? अपने ही पिता के विरूद्ध पांच-पच्चीस हजार रुपयों के लिए कोर्ट जाने वाले क्षमा के अवतार (!) और सर्वहितकारक सिद्धान्त की रक्षा करने वाले - रक्षा के लिए अटल रहने वाले, वास्तविक प्रतिपादन करने वाले झगडालू। ऐसा न्याय तो अनाडी न्यायालय ही दे सकते हैं, सुज्ञ नहीं।

जैन संघ भगवान के विषय में एकमत ही है, कभी दो मत नहीं हो सकते। आज लोगों को उल्लू पटाने के लिए, सत्य से आँख मिचौली कर जी चुरानेवाले तथाकथित ज्ञानी लोग कहते फिरते हैं कि मतभेद भले ही हों, मनभेद नहीं होना चाहिए’, इसके उलट परम तारक पूज्य गुरुदेव कहते थे कि मनभेद भले ही हो, सत्य के प्रति मतभेद नहीं होना चाहिए’, परन्तु जैन गिनेजाने वाले लोग आज भगवान को नहीं पहचानते, साधुओं को नहीं पहचानते और धर्म को नहीं पहचानते, इसी के ये सब झगडे हैं। जो इन्हें पहचानने के लिए कहते हैं, वे झगडाखोर कहे जाते हैं। (क्रमश:)

रविवार, 30 दिसंबर 2012

क्या वे झगडालू आचार्य थे?(2)


शास्त्र ही जिनके चक्षु थे, शासन का अनन्य राग जिनके रोम-रोम में व्याप्त था, शास्त्रों की वफादारी ही जिनका जीवन-मंत्र था, चाहे जैसा प्रलोभन देने पर भी जो सिद्धान्त से तनिक भी आगे-पीछे होने के लिए तत्पर नहीं थे, जो विरोध के प्रचण्ड तूफानों में भी त्रिकालाबाधित सिद्धान्तों तथा सनातन सत्यों का ध्वज फहराता रखने वाले थे और वीर शासन के अडिग सैनानी थे; ऐसे 20वीं सदी में जैन धर्म संघ के महानायक, श्रमण संस्कृति के उद्धारक, पोषक, जैन शासन शिरताज, धर्मयोद्धा, व्याख्यान वाचस्पति, दीक्षायुगप्रवर्तक, विशालतपागच्छाधिपति पूज्य आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा को दुनिया में कई लोग अपप्रचार के वशीभूत झगडालू आचार्य की उपमा से संबोधित करते थे।

एक विरोधी के द्वारा अहमदाबाद में अवमानना (मानहानि) का मुकदमा किया गया था और उसमें पूज्यपाद गुरुदेव श्री को आरोपी बनाया गया था। मुकदमा लडने के लिए समाज की ओर से वकीलों का एक पेनल बना। उन्होंने गुरुदेव से कहा- महाराज, इस केस में प्रमाणरूप जो प्रूफ रीडिंग का पृष्ठ प्रस्तुत किया गया है, इसमें प्रूफ जाँचने वाले आप हैं, ये अक्षर आपके हैं, ऐसा बताया गया है। कोर्ट पूछेगी कि ये अक्षर आपके हैं? तो आपको केवल यही कहना है कि, ये अक्षर मेरे नहीं हैं। बाकी का सबकुछ हम संभाल लेंगे।

गुरुदेव ने कहा- जो अक्षर मेरे ही हैं, उन्हें मेरे नहीं हैं ऐसा मैं कैसे कह सकता हूं? यह तो हो ही नहीं सकता।

वकीलों ने कहा- कहना ही पडेगा। अगर नहीं कहेंगे तो दोष सिद्ध होगा और केस हार जाएंगे।

गुरुदेव ने कहा- जो भी हो, मुझे स्वीकार्य है, किन्तु असत्य तो मैं बोल ही नहीं सकता।

खूब चर्चा हुई। अंत में थक कर एक बडे वकील ने कह दिया, ‘महाराज, आप बडे जिद्दी हैं।

पू.गुरुदेव ने तत्क्षण कहा- लोग मुझे जिद्दी कहें, इसकी मुझे चिन्ता नहीं है। लेकिन, साधुता के तौर पर कोई मुझे असत्यवादी-झूठा कहे, यह मुझे स्वीकार्य नहीं है। मैं वीतराग सर्वज्ञ भगवान महावीर का साधु हूं। साधु कभी असत्य भाषण नहीं करता। यह तो साधु के प्रति समाज का अटूट विश्वास है। यदि लोगों का यह विश्वास टूट गया तो महा अनर्थ हो जाएगा। सत्य का आग्रह अगर हठ माना जाए तो वह हठाग्रह मुझे भवान्तर में भी स्वीकार्य है।

ऐसा हठाग्रह, ऐसी जिद्द प्रशंसनीय है। जगत चाहे उनके लिए कुछ भी अभिप्राय व्यक्त करे। जिनमें एक दोष खोजा न जा सके, उन सर्वज्ञ वीतराग भगवान महावीर में भी दुनिया दोष देखती थी और उन्हें भी झगडालू कहती थी। परमात्मा के समय में जन्मा गोशालक और अन्य लोग परमात्मा को निंदककहा करते थे। सूयगंडांग सूत्र अगर आप लोग सुनें तो इन सब बातों का खयाल आ सकेगा।

आत्महित के लिए बनाया गया सही और गलत का विभागीकरण, ‘सुऔर कुका विवेक, सम्यग् और मिथ्या का भेद, सन्मार्ग और उन्मार्ग की स्पष्टता; यह सब जिसे झगडा या अशान्तिरूप लगता हो, और ये बातें समझाने वाले उत्तम पुरुष जिन्हें झगडालू लगते हों उनके कल्याण के लिए कोई मार्ग नहीं है, ना तो कोई उनकी जबान को पकड सकता है और ना उनके मुंह पर कपडा बांध सकता है। इससे उनके जीवन की सत्यता, सुचिता, जिनाज्ञा के प्रति उनके सर्वस्व समर्पण और जुझारूपन का पता चलता है। (क्रमश:)

शनिवार, 29 दिसंबर 2012

क्या वे झगडालू आचार्य थे?(1)


जिन शासन के विरोधी, मिथ्यामति, दम्भी, शीथिलाचारी और समाज को मनमाने ढंग से हाँकने वाले स्वार्थी लोग जैन शासन सिरताज धर्मयौद्धा व्याख्यानवाचस्पति पूज्य आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा को जिद्दी और झगडालू आचार्य कहते थे, क्योंकि वे हमेशा सत्य, न्याय और नीति के लिए, जिन-सिद्धान्तों की सही-सच्ची व्याख्या के लिए, सही साध्वाचार के लिए अड जाते थे। गलत बात उन्हें बर्दाश्त नहीं थी और गलत के लिए उनकी काफी तल्ख टिप्पणियां होती थी, जो विरोधियों को ही नहीं, अपितु किसी भी इंसान को जकझोर कर रख देती थीं। उन्होंने इस बात की कभी यत्किंचित भी परवाह नहीं की कि वे अकेले पड जाएंगे या उनका कोई साथ देगा अथवा नहीं देगा। उन्हें परवाह थी तो केवल जिनाज्ञा की, अपनी साधुता की, उस पर सबकुछ कुर्बान। उनका स्पष्ट मंतव्य था कि यदि संसार के साथ चलना है तो फिर संयम की जरूरत ही कहां? मरी मछलियां ही बहाव के साथ बहती है।

लीक-लीक गाडी चले, लीक ही चले कपूत ।

तीनों लीके न चले साधु, सिंह, सपूत ।।

संसार के बहाव, धारा के साथ तो हर कोई चलता-बहता है। धारा के विपरीत चलकर अपना एक अलग मुकाम बनाने वाले, अपनी अलग पहचान बनाने वाले बिरले ही होते हैं। इन्हीं में एक थे पूज्यपाद आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वर जी महाराजा।

बीसवीं सदी में धार्मिक क्षेत्र के महानायक रहे, सकल जैन संघ में व्याख्यान के विषय में अद्वितीय कोटि की अधिकारपूर्ण क्षमता और श्रेष्ठता प्राप्त करने वाले, हिंसा-अहिंसा के विवेक-व्याख्या एवं आचरण में तब के राजनीतिक पुरोधा व देश की स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणीय नेता मानेजाने वाले श्री मोहनदास करमचन्द गांधी को भी परास्त कर देने वाले स्वनामधन्य, व्याख्यान वाचस्पति पूज्यपाद आचार्यप्रवर श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वर जी महाराजा जब गरम होते, तब ऐसे गरम होते कि एक भी गलत बात उनके सामने टिक नहीं सकती थी। लेकिन, उनका यह ताप हृदय का नहीं, केवल वाणी का हुआ करता था और उसका परिणमन हित में ही होता था। उनके शब्दों की कडुवाहट में भी करुणा का ही दर्शन होता और प्रत्येक वचन में विवेकपूर्ण करुणा का स्पंदन दिखाई देता। कभी भी उनका हृदय या दिमाग गरम नहीं होता था। हृदय और मन तो हमेशा अत्यंत शान्त ही रहते थे। तभी तो इतना बडा उत्तरदायित्व निभाते हुए भी कभी भी उन्हें मन या हृदय की अशान्ति के कारण, आवेग के कारण होने वाले एसीडिटी, रक्तचाप (बीपी) या हृदय के कोई रोग हुए नहीं थे। (क्रमश:)

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

गांधी से हुआ टकराव (3)


सन् 1920 के आसपास के ही काल में मुनिश्री रामविजयजी के आत्मधर्म और गांधीजी के तथाकथित राष्ट्रधर्म के मध्य वैचारिक संघर्ष चल रहा था, उस समय पूरे देश में गांधीवाद की एक जबरदस्त लहर आकार ले रही थी। धारा में बहने वाले कई सुविधावादी साधु खुलेआम जैन साधु-साध्वियों से भी चरखा कातने और सत्याग्रह में शामिल होने की वकालत करते थे, उस समय मुनिश्री ने इसका प्रतिकार कर जैन साधुओं को चरखा कातने और साध्वियों को नर्स बनने से रोका था, ऐसा अनेक अनुभवी लोगों का मत है।

उस समय में अहमदाबाद के भद्रकाली मन्दिर में बकरे की बलि चढाई जाती थी। मुनिश्री को जब इस बात का पता चला तो पहले तो उन्होंने अपने गुरुजी के साथ मन्दिर जाकर पुजारी को समझाने की भरसक कोशिश की, लेकिन पुजारी के नहीं मानने पर उन्होंने बलि-प्रथा के खिलाफ प्रवचन देना शुरू किया और उनके प्रवचनों से ऐसा जनजागरण हुआ, ऐसा जनसैलाब उमडा कि मन्दिर से बकरे को छुडवा लिया और हमेशा-हमेशा के लिए वहां बकरे का वध बन्द हो गया।

इस बात का पता जब गांधीजी को चला तो उन्होंने दूसरे पक्ष का समर्थन हांसिल करने के लिए तुष्टिकरण की राजनीति के तहत बलि का समर्थन किया। इससे वे एक तीर में दो शिकार करना चाहते थे। मन्दिर के पुजारी और बलि चढाने वाले लोगों का समर्थन प्राप्त करना और मुनिश्री को नीचा दिखाना। इसके लिए उन्होंने अपने अखबार नवजीवनमें अहिंसा की गलत ढंग से व्याख्या कर लोगों को भ्रमित करने की कोशिश की, लेकिन गांधीजी इसमें सफल नहीं हुए।

उन्होंने 7 नवम्बर, 1920 के अपने नवजीवन अखबार में लिखा कि बकरे को बचाकर लोगों को दुःखी किया गया है, पुजारी पर जोर-जबरदस्ती कर बकरे को बचाया गया है, बकरे को बचाने में जोर-जबरदस्ती क्यों?’ उन्होंने बलि के खिलाफ हुए आन्दोलन की आलोचना की। न केवल अपने अखबार में, बल्कि सार्वजनिक सभाओं में भी। लेकिन, यह पासा गांधीजी के खिलाफ ही पडा और उनका दोहरा चेहरा उजागर हुआ। फिर भी गांधीजी यहीं नहीं रुके।

अहमदाबाद के जैन श्रेष्ठी और केलिको मिल के करोडपति मालिक सेठ अम्बालाल साराभाई जो गांधीजी को उनके आंदोलन में आर्थिक मदद भी कर रहे थे, उन्होंने अपने मिल में पर्युषण के दिनों में एक साथ लगभग 60 कुत्तों को घेरकर कमरे में बन्द कर दिया और फिर उन्हें गोली मार कर हत्या करवा दी। इस घटना की सर्वत्र निंदा-भर्त्सना हो रही थी, वहीं गांधीजी ने सेठ से अपने रिश्तों की खातिर और मुनिश्री को आघात पहुंचाने के लिए कुत्तों की हत्या का समर्थन कर दिया। उन्होंने नवजीवन में बहुत ही लचर और हल्की भाषा में लेख लिखकर फिर जीवदया और अहिंसा की गलत व्याख्याएं प्रस्तुत कर जैन धर्म की खिल्ली उडाने का प्रयास किया, लेकिन यह दांव भी उनका उलटा पडा और समूचा जैन समाज इससे नाराज हुआ।

गांधीजी ने लिखा कि जो कुत्ते शहर में भटक रहे हैं, उनमें से कुछ पागल हैं और वे दूसरों को काटते हैं, उन्हें मारदेना चाहिए। भटकने वाले गाय-भैंसों के लिए ही हम व्यवस्था नहीं कर पाते तो कुत्तों के लिए पिंजरापोल की व्यवस्था करने का विचार ही भयंकर लगता है। पागल कुत्ते को भोजन देना महापाप है।आदि, आदि.....। उन्होंने जीवदया का मखौल उडाते हुए लिखा कि हमने बंदरों को भोजन देकर उन्हें जंगल से शहरवासी बनाया। वे शहर में आकर लोगों को परेशान करते हैं। मेरे आश्रम के पास गुजरने वाले व्यक्ति को बंदर को खाद्य पदार्थ देते हुए मैंने देखा है। मैंने कहा कि खाद्य पदार्थ मत दो, आप हिंसा कर रहे हैं, परन्तु उसने मेरी बात नहीं सुनी। मेरे आश्रम में एक सांप निकल आया, जिसे मेरे भतीजे ने मार डाला, मैंने कहा तूने ठीक किया।इस तरह गांधीजी ने अहिंसा और जीवदया को लेकर बहुत बेहूदा प्रलाप किया।

इसके विरोध में मुनिश्री के मार्गदर्शन में श्री जीवदया प्रचारिणी महासभा का गठन हुआ और इस महासभा द्वारा पेम्पलेट (हेण्डबिल, पर्चे) प्रकाशित किए गए। अंत में परेशान होकर गांधीजी को नवजीवन अखबार में हिंसा-अहिंसा के विवेक-विवेचन-व्याख्या पर 17 सप्ताह तक चलने वाली लेखमाला चार सप्ताह में ही रोकनी पडी। जैन शास्त्रों में वर्णित अहिंसा के सिद्धान्तों की यह सबसे बडी विजय थी।

गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

गांधी से हुआ टकराव (2)


सन् 1915 के आसपास अहमदाबाद में आश्रम स्थापित कर गांधीजी ने जब राजनीतिज्ञ के अतिरिक्त महात्माकी भूमिका अदा करनी शुरू कर दी, तब धर्म सिद्धान्तों की व्याख्या के बारे में गांधीजी और जैनाचार्यों के बीच भारी विवाद हुआ था, जिसमें मुख्य भूमिका युवा मुनिश्री रामविजयजी ने अदा की थी। मुनिश्री रामविजयजी को गांधीजी की विचारधारा का सर्वप्रथम परिचय उनकी दीक्षा के दूसरे ही वर्ष में हुआ। उस समय मुनिश्री की उम्र मात्र 18 वर्ष की थी। वे अपने गुरुजी मुनिश्री प्रेमविजयजी महाराज के साथ वडोदरा के एक उपाश्रय में बिराजमान थे। पास की जैन बोर्डिंग के प्रांगण में जैन समाज के प्रतिष्ठित लोगों की ओर से गांधीजी का सम्मान आयोजित किया गया था। मुनिश्री अपने गुरुदेव के साथ उपाश्रय में बैठे-बैठे माइक पर आ रही भाषणों की आवाज सुन रहे थे। जैन श्रेष्ठी गांधीजी के सम्मान के लिए फूलों के हार लाए थे, लेकिन गांधीजी ने उन्हें अस्वीकार करते हुए जैन धर्म पर कटाक्ष करते हुए कहा कि आपके धर्म के अनुसार इसमें एकेन्दि्रय जीव की हिंसा होती है। गांधीजी का इस तरह कटाक्ष करना मुनिश्री को नागंवार गुजरा, वे बहुत व्यथित हुए। गांधीजी को स्वतंत्रता संग्राम और उनके आश्रम के लिए सर्वाधिक मदद भी जैन समाज से ही मिल रही थी, ऊपर से ऐसा बर्ताव?
फिर गांधीजी ने अहमदाबाद में स्थायी होने के बाद इन्दुलाल याज्ञिक का नवजीवनमासिक अपने हाथ में लिया और उसे साप्ताहिक बनाया। इस साप्ताहिक में उन्होंने अहिंसा के विषय में जो विचार प्रकाशित करने शुरू किए, उसके कारण भी जैनियों में भारी ऊहापोह की स्थिति बन गई। गांधीजी को पहली बार झटका तब लगा, जब उन्होंने सुना कि मुनिश्री रामविजयजी के प्रवचनों में अपार जनसमूह उमड रहा है और बडे-बडे मैदानों में पांव धरने की भी जगह नहीं बचती। प्रवचनों का प्रभाव ऐसा कि भक्ष्य-अभक्ष्य के सेवन और अहमदाबाद में पनपती होटल-संस्कृति के खिलाफ दिए गए उनके प्रवचनों से लोग होटलों में खाना-पीना बंद कर दे रहे हैं, बडे-बडे नामी होटलों के बन्द होने की नौबत आ गई है। गांधीजी का सोच बना कि ऐसा प्रभावशाली मुनि यदि मेरे आंदोलन में जुड जाए तो इसका काफी लाभ होगा और उन्होंने मुनिश्री को अपने साथ जुडने के लिए प्रस्ताव भिजवाना शुरू कर दिया। एक बार गांधीजी ने मुनिश्री के प्रवचन में आने के लिए समाचार कहलवाए तो मुनिश्री ने साफ शब्दों में कहलवा दिया कि प्रवचन में आना चाहें तो उन्हें कोई ऐतराज नहीं है, लेकिन यहां आकर वे राजनीति की बात नहीं कर सकेंगे
गांधीजी को लगा कि इस मुनि को पटाना इतना आसान नहीं है, तब उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल को आगे किया। वल्लभभाई भी एक नेता की नहीं, बल्कि श्रोता की हैसियत से मुनिश्री रामविजयजी के प्रवचनों में आते और घण्टों तक बैठकर इस युवा मुनि की मंत्रमुग्ध करदेने वाली वाणी को सुनते। एक बार सरदार से रहा नहीं गया और उन्होंने अपने निहीत उद्देश्य की बात मुनिश्री के सामने प्रकट कर ही दी। सरदार पटेल ने कहा- महाराजश्री! इस समय गांधीजी के नेतृत्व में देश में स्वराज के लिए जो आंदोलन चल रहा है, वह भी धार्मिक कार्य ही है। यदि आप जैसा कोई उसमें रुचि ले तो प्रजा में जागृति आएगी, क्या आपको ऐसा नहीं लगता?’ गांधीजी के असहयोग आंदोलन से जुडने का यह खुला निमंत्रण था, परन्तु मुनिश्री रामविजयजी ऐसे प्रलोभनों से परे थे। उन्होंने तुरन्त जवाब दिया- इस आंदोलन में मुझे धार्मिकता का अंश भी दिखाई नहीं देता। जिस दिन मुझे इसमें धार्मिकता दिखाई देगी, उस दिन किसी के भी निमंत्रण की आशा रखे बगैर मैं स्वयं आकर इससे जुड जाऊंगा।इस उत्तर को सुनकर सरदार पटेल निराश होकर चले गए। इसके बाद भी गांधीजी और सरदार पटेल ने काफी प्रयास किए, किन्तु उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली।
मुनिश्री का साफ मानना था कि आत्म-धर्म की अवज्ञा कर राष्ट्र-धर्म का उपदेश देने वाले राष्ट्र के लिए भी श्रापरूप हैं। ऐसे उपदेश से राष्ट्र-हितैषियों को भी सावधान रहना चाहिए। राष्ट्रधर्म को राष्ट्रधर्म के रूप में पहचानने में किसी को भी विरोध नहीं हो सकता, परन्तु जब राष्ट्रधर्म को युगधर्म के रूप में निरूपित कर उसे ही प्रधानपद बनाकर आत्मधर्म को, आत्मधर्म के उपासकों को और आत्मधर्म के विशिष्ट अंगों को धक्का पहुंचाने का प्रयास हो तो उसके विरूद्ध सत्यधर्म के उपासक के प्रबल विरोध में कोई नवीनता नहीं है।मुनिश्री रामविजयजी के इन धारदार शब्दों से राष्ट्रधर्म और आत्मधर्म की उनकी विचारधारा और व्याख्या एकदम स्पष्ट हो जाती है। आज राष्ट्र की जो हालत है, उसे देखकर हम समझ सकते हैं कि मुनिश्री की तब कही हुई बात कितनी सटीक और यथार्थ है। आज राष्ट्रधर्म में से उसकी आत्मा गायब है, उसी का परिणाम है भयंकर भ्रष्टाचार, तुष्टिकरण और छल-कपट की राजनीति; जिसकी शुरुआत गांधीजी के समय ही हो गई थी। (क्रमश:)

बुधवार, 26 दिसंबर 2012

गांधी से हुआ टकराव (1)


शास्त्र ही जिनके चक्षु थे, शासन का अनन्य राग जिनके रोम-रोम में व्याप्त था, शास्त्रों की वफादारी ही जिनका जीवन-मंत्र था, चाहे जैसा प्रलोभन देने पर भी जो सिद्धान्त से तनिक भी आगे-पीछे होने के लिए तत्पर नहीं थे, जो विरोध के प्रचण्ड तूफानों में भी त्रिकालाबाधित सिद्धान्तों तथा सनातन सत्यों का ध्वज फहराता रखने वाले थे और वीर शासन के अडिग सैनानी थे; ऐसे 20वीं सदी में जैन धर्म संघ के महानायक, श्रमण संस्कृति के उद्धारक, पोषक, जैन शासन शिरताज, धर्मयोद्धा, व्याख्यान वाचस्पति, दीक्षायुगप्रवर्तक, विशालतपागच्छाधिपति पूज्य आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा का तत्कालीन भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले मोहनदास करमचंद गांधी से जीवन मूल्यों और सिद्धांतों को लेकर खूब टकराव चला.
गांधीजी वैष्णव कुल में जन्में, विदेश जाने से पूर्व उन्होंने एक जैन मुनि से मद्य-मांस का सेवन न करने का संकल्प लिया और अहिंसा को अपने जीवन का, अफ्रीका में रंग-भेद के खिलाफ आंदोलन में और हमारे देश में आजादी की लडाई में मूल मंत्र बनाया। किन्तु उनकी यह अहिंसा आधी-अधुरी ही थी, क्योंकि वे भी तुष्टिकरण की राजनीति करते थे। उन्होंने अहमदाबाद के भद्रकाली मन्दिर में होने वाली बकरे की बलि का समर्थन किया, एक मिलमालिक द्वारा अपनी मिल में 60 कुत्तों को एकसाथ गोली मारकर उनकी हत्या कर दी तो उन्होंने यहां भी फण्डिंग के लालच में मिलमालिक से अपने रिश्तों के चलते उसका समर्थन कर दिया। कई बार सच्चाई को दबाने के लिए उन्होंने झूठ का सहारा लिया। इन्हीं कारणों के चलते जैन शासनसिरताज व्याख्यानवाचस्पति पूज्य आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा का उनसे खूब टकराव चला, गांधीजी ने इस टकराव में अपने अखबार नवजीवनका भी इस्तेमाल किया, उसे अपना हथियार बनाया और आचार्यश्री पर बौद्धिक हमले किए, लेकिन अंततोगत्वा गांधीजी को अपनी गलतियां स्वीकार करनी पडीं। हिंसा-अहिंसा के विवेक और व्याख्या में अपरोक्षरूप से तब मुनि श्री रामविजय जी के खिलाफ चलाई गई लेखमाला को उन्हें रोकना पडा।
दरअसल इस टकराव के पीछे असली वजह दूसरी थी। गांधी जी चाहते थे कि जैन मुनि चरखा कातें, जैन साध्वियां नर्स का काम करें और इन सब में जैन शासनसिरताज व्याख्यानवाचस्पति पूज्य आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा अपने प्रभाव का इस्तेमाल करें, साधु-साध्वियों को इसके लिए प्रेरित करें। इसके साथ ही गांधीजी चाहते थे कि पूज्य आचार्यश्री आत्म-धर्म को छोडकर राष्ट्र-धर्म के लिए स्वतंत्रता संग्राम में उनके साथ आ जाएं। इसके लिए उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल के जरिए भी काफी कोशिशें की, किन्तु आचार्यश्री (तब मुनिश्री रामविजयजी) इसके लिए तैयार नहीं हुए। इससे गांधीजी बौखला गए, नाराज हो गए।
मुनिश्री रामविजयजी और गांधीजी दोनों समकालीन थे, हालांकि गांधीजी आयु में मुनिश्री से 27 वर्ष बडे थे, लेकिन देश में और खासकर अपनी कर्मभूमि अहमदाबाद-गुजरात में अपने-अपने क्षेत्रों में दोनों ने एक ही समय में प्रवेश किया। गांधीजी इससे पहले अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ संघर्षरत थे। बीसवीं सदी में भारत की राजनीति में यदि किसी एक व्यक्ति का सबसे गहरा प्रभाव था तो वह निःसंदेह मोहनदास करमचन्द गांधी का था और उसी समय जैन धर्म में यदि किसी एक आचार्य का सबसे ज्यादा प्रभाव था तो वह व्याख्यानवाचस्पति पूज्य आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा का था, जो गांधीजी से टकराव के समय सिर्फ जैन शासन के एक मुनि थे। स्वभाव से दोनों जिद्दी थे। एक पर मुनिधर्म, अहिंसा की सही-सच्ची व्याख्या करने और जैन संस्कृति की रक्षा का जुनून सवार था तो दूसरा उसका अपने मतलब और अपनी ताकत बढाने के लिए व तुष्टिकरण की राजनीति के लिए इस्तेमाल करना चाहता था। अहिंसाशब्द की व्याख्या भी गांधीजी ने जैन धर्म की सूक्ष्म व्याख्या के खिलाफ निहीतार्थों में की। (क्रमश:)

मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

कोर्ट कचहरी में जिन शासन की विजय पताका (4)


शास्त्र ही जिनके चक्षु थे, शासन का अनन्य राग जिनके रोम-रोम में व्याप्त था, शास्त्रों की वफादारी ही जिनका जीवन-मंत्र था, चाहे जैसा प्रलोभन देने पर भी जो सिद्धान्त से तनिक भी आगे-पीछे होने के लिए तत्पर नहीं थे, जो विरोध के प्रचण्ड तूफानों में भी त्रिकालाबाधित सिद्धान्तों तथा सनातन सत्यों का ध्वज फहराता रखने वाले थे और वीर शासन के अडिग सैनानी थे; ऐसे 20वीं सदी में जैन धर्म संघ के महानायक, श्रमण संस्कृति के उद्धारक, पोषक, जैन शासन शिरताज, धर्मयोद्धा, व्याख्यान वाचस्पति, दीक्षायुगप्रवर्तक, विशालतपागच्छाधिपति पूज्य आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा ने दीक्षा के बाद कोर्ट कचहरी में भी जिन शासन की विजय पताका फहराई.

मुनिश्री रामविजयजी के अद्भुत् व्यक्तित्व और प्रभावशाली प्रवचनों से आकर्षित युवकों और श्रीमंतवर्ग में भी दीक्षा लेने और साधु बनने के लिए चाह पैदा हुई तो दूसरी ओर शुरुआत से ही दीक्षा का विरोध करनेवाला वर्ग और उग्र बना। मुनिश्री रामविजयजी उनके लिए दुश्मन नम्बर एक बन गए। किसी भी व्यक्ति के दीक्षा लेने के लिए तैयार होने पर विरोधी दीक्षा रोकने के लिए आकाश-पाताल एक कर देते। दूसरी ओर मुनिश्री रामविजयजी की दृढता चट्टान जैसी थी। किसी भी कीमत पर अपने निर्णय पर अमल करने के लिए वे दृढ रहते। इस तरह अपनी हिम्मत से वे किसी को भी दीक्षा दे देते। इसके बाद भी आफतों का अंत नहीं होता था। दीक्षा के विरोधी साधु बनने वाले के परिवार वालों को उकसाकर उनके नाम से कोर्ट में मुकदमे करवा देते थे। इन सभी मुकदमों में मुख्य आरोपी के रूप में मुनिश्री रामविजयजी का ही नाम रहता।

जिस समय मुनिश्री रामविजयजी की दीक्षा हुई थी, उस समय पूरे श्वेताम्बर जैन संघ में 150 साधु थे। संवत् 2047 में इनकी संख्या बढकर 6000 को पार कर गई। इसका मुख्य श्रेय मुनिश्री द्वारा बनाए गए माहौल को ही जाता है।

मुनिश्री तिलकविजयजी नाम के एक साधु के दीक्षा लेने पर उनकी सांसारिक पत्नी इतनी उत्तेजित हो गई कि उसने भरी सभा में मुनिश्री रामविजयजी के कपडे फाडने का प्रयास किया, साथ ही उसने पुलिस में दर्ज करवाई रिपोर्ट में मुनिश्री पर आरोप लगाया कि उन्होंने मुझे ओघे से पीटा। यह केस अहमदाबाद की कोर्ट में चला। जिसमें गवाही देने के लिए मुनिश्री को जाना पडता। उनकी कार्यशैली, पैरवी, तर्क और पक्ष प्रस्तुतिकरण इतना प्रभावी होता था कि संयोग से ही किसी केस में उन्हें वकील की जरूरत होती। इस केस में भी आरोपी के कटघरे में प्रवेश से पूर्व उन्होंने ओघा से जमीन का परिमार्जन करने के बाद, उसी ओघा को न्यायाधीश को बताकर उन्होंने कहा कि हम साधु इसका उपयोग कीडे-मकोडे भी न मर जाएं, इसके लिए जमीन परिमार्जन के लिए करते हैं। आप ही बताइए क्या कोई जैन साधु इसका उपयोग किसी को मारने के लिए कर सकता है? उनकी इस दलील को न्यायमूर्ति अवाक सुनते ही रह गए।

मुम्बई में तथाकथित सुधारवादियों के बवाल, उग्र विरोध और हमला करने की संभावनाओं के मद्देनजर डर के मारे समाज के कुछ अग्रणीय कहे जाने वाले लोगों ने आचार्य भगवन् को सुरक्षा की दृष्टि से प्रवचन बंद रखने की सलाह दी तो पूज्य श्री ने निर्भीकता से कहा, ‘हमारी सुरक्षा की आप तनिक भी चिन्ता न करें। हमारी रक्षा करने वाला श्री जिनशासन जयवंत है। कोई हमारी रक्षा करेगा, इस विश्वास पर हमने यह संयम अंगीकार नहीं किया है।

मात्र दीक्षा देने के तथाकथित अपराध के कारण उन पर अनेक केस मुम्बई, अहमदाबाद, बडोदरा और खंभात की अदालतों में चले थे। गवाही देने के लिए उन्हें लगभग 50 बार आरोपी के कटघरे में खडा रहना पडा होगा। फिर भी उन्होंने अपने कदम वापस नहीं खींचे। इसी से उनके साहसी और पराक्रमी जीवन का पता चल जाता है। वे वास्तव में एक धर्मयौद्धा थे।

प्रकाण्ड पाण्डित्य, गुरुजनों की असाधारण कृपा, अनुपम विद्वत्ता, अपूर्व वाकपटुता, अदम्य तर्क-शक्ति, उच्चकोटि के शिखरस्थ विद्धानों को भी प्रभावित करने वाली वक्तृत्व शक्ति, श्रोताओं को मुग्ध करने वाली वेधक वाणी, सरल, सुबोध एवं हृदयगम्य शैली में समझाने की अद्भुत् छटा, आप श्री के प्रवचनों से होती शासन रक्षा तथा प्रभावना से प्रभावित गुरुजनों दादागुरु श्रीमद् विजयदानसूरीश्वरजी महाराजा और पूज्यगुरुदेव श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजा ने विक्रम संवत् 1987 में मुम्बई भायखला में सकल संघ की उपस्थिति में उन्हें अधिकृत रूप से व्याख्यान वाचस्पतिकी उपाधि से विभूषित किया था। ज्ञात रहे कि व्याख्यान वाचस्पतिका मतलब होता है व्याख्यान के विषय में सब कुछ जानने वाला और समग्र मुनि समुदाय में उस समय इस महापदवी से अलंकृत दो ही आचार्यदेव थे। एक आचार्यदेव श्री वि. लब्धिसूरीश्वर जी और दूसरे आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वर जी म.।

जैन शासनसिरताज व्याख्यानवाचस्पति पूज्य आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा को विक्रम संवत् 1987 में ही कार्तिक वदी 3 को मुम्बई में गणि पंन्यास पद, विक्रम संवत् 1991 में चैत्र सुदी 14 को राघनपुर में उपाध्याय पद, विक्रम संवत् 1992 में वैशाख सुदी 6 को मुम्बई में आचार्य पद प्रदान किया गया। उनका स्वर्गारोहण 96 वर्ष की आयु में विक्रम संवत् 2047 की आषाढ वदी 14 को अहमदाबाद में हुआ। पूरी सजगता के साथ उनके मुंह से अंतिम शब्द निकला-अरिहंतऔर वे स्वर्ग सिधारगए।

उन्होंने 79 वर्ष तक उत्कृष्ट संयम साधना कर प्रभु महावीर के शासन को खूब दिपाया। वे 56 वर्ष तक आचार्य पद पर रहे और उनके स्वर्गारोहण के समय उनके लगभग एक हजार आज्ञानुवर्ती साधु-साध्वियों की विशाल सम्पदा थी। आज उनके संघ में लगभग 1400 साधु-साध्वीजी उत्कृष्ट संयम का पालन कर रहे हैं।