जो भव्य आत्मा
यथाप्रवृत्तिकरण को प्राप्त करते हैं,
उनमें जहां तक
अपूर्वकरण पैदा न हो, वहां तक वे यथाप्रवृत्तिकरण
में ही रहते हैं। सम्यक्त्वरूप शुद्ध धर्म के बीज आदि की प्राप्ति भी
यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा ही होती है,
जीव ग्रंथिदेश पर
यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा आता है, तत्पश्चात द्रव्यश्रुत और
द्रव्यचारित्र को प्राप्त करे, तो वह यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा
ही प्राप्त करता है। चरमावर्त को प्राप्त जीव सम्यक्त्वरूप शुद्ध धर्म के बीजादि
को भी यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा ही पाता है। इससे यह समझा जा सकता है कि
यथाप्रवृत्तिकरण चित्र-विचित्र प्रकार का करण है। अभव्यों को, दुर्भव्यों को और अपूर्वकरण को नहीं प्राप्त किए हुए भव्यों
को भी यथाप्रवृत्तिकरण ही होता है। केवल भव्य जीव ही यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा
ग्रंथिदेश पर आने के बाद भवितव्यता आदि के सुयोग से पुरुषार्थशाली बनकर अपूर्वकरण
को प्राप्त कर सकते हैं। अर्थात् अभव्यों को तथा दुर्भव्यों को तो एकमात्र
यथाप्रवृत्तिकरण के सिवाय और कोई भी परिणाम पैदा नहीं हो सकता। तीनों प्रकार के
परिणामों की प्राप्ति तो मात्र भव्यात्माओं को ही हो सकती है। जिन आत्माओं का
संसार काल एक पुद्गल परावर्त से अधिक शेष नहीं रहा, उन्हें ही हम यहां भव्य आत्मा कहते हैं। ऐसे जीव यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा
ग्रंथिदेश पर आने के बाद भवितव्यता आदि की अनुकूलता के योग से क्रमशः प्रगतिशील
बनकर अपूर्वकरण द्वारा अपने राग-द्वेष के गाढ परिणामरूप ग्रंथि को भेद डालते हैं।
इस प्रकार राग-द्वेष के गाढ परिणामरूप ग्रंथि का भेदन हो जाने के बाद ही भव्यात्मा
अनिवृत्तिकरण द्वारा सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं। उस समय उन आत्माओं का
संसारकाल यदि शेष हो तो अधिक से अधिक अर्धपुद्गल परावर्तकाल से कुछ न्यून ही शेष
रहता है।
यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा
ग्रंथिदेश को प्राप्त करने के पश्चात जीव अपूर्वकरण को प्राप्त करे ही, ऐसा नियम नहीं है। यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा जीव ग्रंथिदेश पर
तो अनंत बार आता है, फिर भी वह जीव अपूर्वकरण को
प्राप्त नहीं करता है, यह संभव है; परन्तु अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के लिए ऐसा नहीं है।
ग्रंथिदेश पर आए बिना कोई भी जीव अपूर्वकरण को नहीं पा सकता, परन्तु जो जीव ग्रंथिदेश पर आने के बाद अपूर्वकरण को
प्राप्त करता है, वह जीव उस करण द्वारा नियम से
ग्रंथि को भेद डालता है। तब वह जीव नियम से अनिवृत्तिकरण को भी पाता है और इसके
द्वारा सम्यक्त्व को भी प्राप्त करता है। अधिगम से सम्यक्त्व को पाने वाले जीवों
के लिए ही ऐसा होता है, ऐसी बात नहीं है। निसर्ग से
सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त करने वाले जीव भी इसी तरह अपूर्वकरण को पाकर, इसके द्वारा ग्रंथि को भेदकर, अनिवृत्तिकरण द्वारा सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त करते हैं। कोई भी जीव
अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण को पाए बिना शुद्ध धर्मरूप सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं
कर सकता।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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