शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

सम्यग्दृष्टि जीव संवेगी होता है


संवेग सम्यक्त्व का दूसरा लक्षण है। संवेग, मोक्ष की अभिलाषा स्वरूप है। मोक्ष की यह अभिलाषा भी कैसी? सम्यक्त्व को नहीं पाए हुए जीव में मोक्षाभिलाषा बहुत सामान्य कोटि की हो सकती है, परन्तु सम्यक्त्वी जीव की मोक्षाभिलाषा तो ऐसी होती है कि उसे संसार का चाहे जैसा भी सुख, सुखरूप लगता ही नहीं; अपितु दुःखरूप ही लगता है। साथ-साथ उसे ऐसा भी लगता रहता है कि एक मात्र मोक्ष का सुख ही सच्चा सुख है।

सम्यक्त्व को प्राप्त जीव ऐसा ही सोचता है कि जो विषयजनित सुख और कषायजनित सुख प्रचुर मात्रा में, केवल राजा को ही प्राप्त हो सकते हैं, मात्र चक्रवर्ती को ही प्राप्त हो सकते हैं, अथवा इन्द्रों को ही प्राप्त हो सकते हैं, ऐसे भी विषय-कषाय जनित सुख, दुःख से सर्वथा रहित नहीं होते; अपितु इन सुखों में दुःख भी मिला हुआ ही होता है। साथ ही इन सुखों का रस, इन सुखों का भोग और इन सुखों की इच्छा भी परिणाम में दुःख देने वाले ही बनते हैं। जबकि, मोक्ष सुख ही एक मात्र ऐसा सुख है, जिस सुख में दुःख का एक अंश भी नहीं होता और जिस सुख में से कभी दुःख पैदा ही नहीं होता।इस तरह का विवेकपूर्ण विचार करके वही जीव विषय-कषाय के सुख की प्रार्थना से बच सकता है और मोक्ष-सुख की प्रार्थना कर सकता है, जो सम्यक्त्व को पाया हुआ हो। यह संवेग है।

सम्यक्त्व को प्राप्त जीव, निकाचित अविरति के उदय के कारण विषय-कषाय जनित सुख की इच्छा करे, यह संभव है; इस सुख को पाने के लिए और इसे सुरक्षित रखने के लिए वह प्रयत्न करे, यह भी हो सकता है; परन्तु, इस सुख को वह सच्चा सुख नहीं मानता है। मोक्ष-सुख को ही वह सच्चा सुख मानता है। इसलिए उसके मन से मोक्ष-सुख को पाने का भाव, पौद्गलिक सुख के भोग आदि में आनंद मानते समय भी जाता नहीं है। पौद्गलिक सुखों के भोग आदि में आनंद आए, तो भी वह जीव ऐसा ही विचार करता है कि मेरा यह आनंद भी मेरे पापोदय का प्रतीक है और इसलिए दुःख का कारणरूप है। यह सुख इस समय भी दुःख मिश्रित है और परिणाम में भी यह सुख मुझे दुःख देनेवाला है।

संवेग का मोक्ष की अभिलाषा के रूप में जैसे वर्णन किया गया है, वैसे संवेग का अर्थ संसार से भय’, ऐसा भी होता है। कई बार विवेकी जीवों को ऐसा विचार भी आता है कि वस्तुतः इस संसार में सुख जैसा कुछ है ही नहीं।संसार में जीव के परिभ्रमण करने की चार गतियां हैं, उनमें से एक भी गति ऐसी नहीं है, जिसमें दुःख का सर्वथा अभाव हो! किसी गति में मरण ना हो, ऐसा तो है ही नहीं! ये भाव मोक्ष को पाने की इच्छा को पैदा किए बिना तो रहता ही नहीं। इस तरह जीव संसार से भयभीत हो जाए, यह संवेग है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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