अपनी आत्मा के सम्यग्दर्शन
गुण को प्रकट करने वाले पुण्यात्माओं का आत्म-परिणाम बहुत ही सुंदर प्रकार का होता
है। मल के कलंक से रहित स्वर्ण जैसे काला नहीं दिखता, वैसे सम्यग्दर्शन को प्राप्त-जीव का आत्म-परिणाम भी मलीन
नहीं होता। यद्यपि सम्यग्दर्शन गुण को प्राप्त करने के पश्चात भी सब जीव स्वयं को
प्राप्त सम्यक्त्व को स्वयं के उस भव के अंत तक या उससे अधिक काल तक टिकाए ही रखते
हैं, ऐसा नहीं होता। सम्यक्त्व को पाने के बाद उसे टिकाए
रखने के लिए तथा उसको निर्मल बनाने के लिए सम्यग्दृष्टि आत्माओं को बहुत सावधानी
रखनी चाहिए। निमित्त के वश में पडकर सम्यग्दृष्टि जीव अपने शुभ परिणाम को गवां भी
सकता है। एक बार सम्यग्दर्शन गुण की प्राप्ति होने के बाद वह टिका ही रहता है और
उत्तरोत्तर गुण वृद्धि होती ही रहती है और क्रमशः जीव मोक्ष को पा लेता है; ऐसा सब जीवों के लिए नहीं होता है।
सम्यग्दर्शन गुण को पाने वाले
जीवों में ऐसे जीव भी होते हैं, जो सम्यक्त्व को पाने के बाद
किसी निमित्त के कारण उस प्रकार के निकाचित दुष्कर्मों का उदय होने से, प्राप्त सम्यक्त्व को गंवा बैठते हैं। ऐसा होते हुए भी उन
जीवों में कुछ न कुछ अच्छाई तो रहती ही है। वे जीव अर्धपुद्गलपरावर्त से भी कम काल
में नियम से मोक्ष को पानेवाले होते हैं;
अर्थात् वे पुनः
सम्यक्त्व को पाते ही हैं। सम्यक्त्व को पाने के पश्चात जो कुछ न्यून अर्ध पुद्गल
परावर्तकाल कहा गया है, वह ऐसे ही जीवों के लिए है जो
श्री तीर्थंकर परमात्मा आदि को आशातना करने वाले बनते हैं। वैसे तो क्षायोपशमिक
सम्यक्त्व अनेक बार आता है और अनेक बार जाता है, परन्तु एक बार भी यदि औपशमिक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है, तो समझ लेना चाहिए कि अर्धपुद्गलपरावर्त से भी कम काल में
वह जीव मोक्ष प्राप्त करने वाला है। सम्यग्दर्शन गुण की यह छोटी-मोटी महत्ता नहीं
है। इसके मद्देनजर ऐसा भी कहा जा सकता है कि सम्यग्दर्शन आत्मा का मुख्य गुण है।
वैसे तो आत्मा का मुख्य गुण ज्ञान गिना है,
परन्तु यह ज्ञान गुण
सम्यग्दर्शन के योग से ही सम्यक कहा जा सकता है, इसलिए सम्यग्दर्शन गुण की महत्ता बढ जाती है। सम्यग्दर्शन बिना का ज्ञान
अज्ञान है और चारित्र कायकष्ट है, ऐसा उपकारी महापुरुषों ने
स्पष्ट शब्दों में फरमाया है।
सम्यग्दर्शन, आत्मा के परिणामों पर गजब का प्रभाव डालता है। सम्यग्दर्शन
गुण की उपस्थिति में जीव अच्छे परिणामों का स्वामी हो, यह स्वाभाविक ही है। सम्यक्त्व के उपयोग वाली दशा में भी
जीव को कर्मवश असत् क्रियाएं करनी पडे,
यह संभव है, परंतु सम्यग्दर्शन गुण का सामर्थ्य ऐसा अद्भुत है कि
सम्यग्दृष्टि जीव अपनी उन असत् क्रियाओं को भी कर्मनिर्जरा का कारण बना सकता है।-आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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