हमको यह विचार करना है कि
कर्मग्रंथि रूपी आत्मा के परिणाम को किस परिणाम द्वारा भेदा जा सकता है? कर्मग्रंथि रूपी आत्मा के परिणाम का स्वरूप क्या है? गाढ राग-द्वेषमय यह परिणाम है। यह आत्म-परिणाम चारघाती
कर्मों से सर्वाधिक बलवान उस मोहनीय कर्म द्वारा पैदा हुआ होता है, जिसमें आत्मा के शुद्ध स्वरूप को आवृत करने की सर्वाधिक
शक्ति है। मोहनीय कर्म से जनित इस आत्म-परिणाम को शेष तीन घाती कर्म- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय कर्म की सहायता प्राप्त हुई होती है।
इस आत्म-परिणाम का जनक तो मोहनीय कर्म है और इस परिणाम को स्थिर रखने वाले ज्ञानावरणीयादि
तीन घाती कर्म हैं। इस प्रकार आत्म-परिणाम गाढ राग-द्वेषमय होता है।
इस आत्म-परिणाम को भेदने के
लिए उद्यत बने हुए आत्माओं को ऐसा परिणाम उत्पन्न करना चाहिए जो सीधा मोहनीय कर्म
पर प्रहार करे और ज्ञानावरणीयादि तीन कर्मों पर भी न्यूनाधिक प्रहार हुए बिना न
रहे। अब गाढ राग-द्वेष के परिणाम से विपरीत स्वरूप का तीव्र परिणाम कैसा होना
चाहिए, इसकी कल्पना करिए। कर्मग्रंथि रूपी आत्म-परिणाम में
जो गाढ राग का भाव रहा हुआ है, उसे भी भेदे और उस कर्मग्रंथि
रूपी आत्म-परिणाम में जो द्वेष का भाव रहा हुआ है, उसे भी भेदे, ऐसा वह परिणाम होना चाहिए।
अतः वस्तुतः हमें करना क्या
है? परिणाम को भेदना नहीं है, अपितु परिणाम में आते हुए गाढ राग और द्वेष के प्रभाव को
टालना है। इस प्रभाव को टालने के लिए राग के गाढपन और द्वेष के गाढपन को दूर हटा
देना चाहिए। राग-द्वेष को ऐसे स्थान पर केन्द्रित कर देना चाहिए, जहां केन्द्रित होने से क्रमशः वे राग-द्वेष पतले पडते जाएं
और अपना दुष्प्रभाव छोडने में शक्तिहीन होते जाएं। मोहगर्भित राग और मोहगर्भित
द्वेष के प्रति जब तक वास्तविक नाराजगी प्रकट न हो, तब तक यह संभव ही नहीं है। क्रोध पर रोष व क्षमा पर राग हुए बिना क्रोध के
आत्म-परिणाम को भेदने वाला क्षमा का आत्म-परिणाम प्रकट नहीं किया जा सकता और तीव्र
भी नहीं बनाया जा सकता। इसी तरह कर्मग्रंथि रूपी जो आत्म-परिणाम है, उस आत्म-परिणाम को भी उससे विपरीत स्वरूप के आत्म-परिणाम से
भेदना चाहिए।
राग-द्वेष के योग में जीव को
वस्तुतः सुख होता ही नहीं, दुःख ही होता है और राग-द्वेष
दुःख का कारण है, ऐसा जब जीव को अनुभव हो जाए
तो वीतराग बनने की इच्छा प्रकट हुए बिना रह सकती है? इसके योग से, वीतराग बनने के उपायरूप धर्म
पर राग प्रकट होता है और वीतराग बनने में अंतराय करने वाले पाप पर द्वेष प्रकट
होता है। ‘राग-द्वेष केवल हानिकारक ही हैं, हेय ही हैं,
इसलिए मुझे राग-द्वेष
नहीं चाहिए’, इस प्रकार के परिणाम को अपूर्वकरण कह सकते हैं।-आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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