कर्मों की चरम उत्कृष्ट
स्थिति किसे कहते हैं?
कर्मों की चरम उत्कृष्ट
स्थिति किसे कहते हैं? क्योंकि कर्मों की चरम
उत्कृष्ट स्थिति का क्षय होने के बाद ही जीव को बीज आदि के क्रम से सम्यक्त्व की
प्राप्ति होती है और उस क्रम में भी सम्यक्त्व अपूर्वकरण से साध्य है। जीव के साथ
अनादिकाल से जड कर्मों का योग है और उन कर्मों के मुख्य विभाग आठ हैं। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय,
वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराय; इन आठ प्रकार के कर्मों में से प्रथम दो, चौथा और अंतिम अर्थात ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय,
मोहनीय और अंतराय-ये
चार कर्म घातीकर्म कहलाते हैं। शेष चार अघाती कर्म कहलाते हैं। इन आठों कर्मों की
स्थिति एक जैसी नहीं है।
कर्मों की स्थिति का अर्थ यह
है कि अधिक से अधिक उतने समय तक उस कर्म को उदय में आने के बाद से भोगा जा सकता
है। अथवा उस कर्म के उदय में आने के बाद से वह कर्म अधिक से अधिक समय के लिए उतने
काल तक ही टिका रह सकता है। सब कर्म अपनी उत्कृष्ट स्थिति वाले ही बँधते हैं या
बँधे हुए होते हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है। जैसे
कि-ज्ञानावरणीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटी सागरोपम की है; दर्शनावरणीय,
वेदनीय और अंतराय-इन
तीन कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति भी तीस कोटाकोटी सागरोपम की है। मोहनीय की उत्कृष्ट
स्थिति सत्तर कोटाकोटी सागरोपम की है। जबकि नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति
बीस कोटाकोटी सागरोपम की है। आयुष्य कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरोपम की
है।
‘जीव जब इन आठों कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति में होता है, तब तो वह ऐसा क्लिष्ट परिणाम वाला होता है कि वह सद्धर्म को
प्राप्त कर ही नहीं सकता’। सद्धर्म को प्राप्त करने
योग्य स्थिति तो कर्मों की चरम उत्कृष्ट स्थिति का क्षय होने के बाद ही प्राप्त हो
सकती है। यह चरम उत्कृष्ट स्थिति कौनसी?
आयुष्य कर्म को छोडकर
शेष सातों कर्मों की स्थिति जब एक कोटाकोटी सागरोपम की हो जाए, तब उस स्थिति को उन सातों कर्मों की चरम उत्कृष्ट स्थिति
कहा जाता है।
आयुष्य कर्म को छोडकर सात
कर्मों की स्थिति जहां तक एक कोटाकोटी सागरोपम की भी हो अर्थात् जीव ने मोहनीय
कर्म की 70 में से 69
कोटाकोटी सागरोपम की
स्थिति क्षय की हो, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय,
वेदनीय और अंतराय-इन
चारों कर्मों की 30 में से 29 कोटाकोटि सागरोपम की स्थिति क्षय की हो और नामकर्म तथा
गोत्रकर्म की 20 में से 19 कोटाकोटी सागरोपम की स्थिति क्षय की हो, वहां तक तो जीव सम्यक्त्व के बीज को भी प्राप्त नहीं कर
सकता। ऐसे जीव को तो श्री नमस्कार मंत्र के प्रथम पद के उच्चार की भी प्राप्ति
नहीं होती। इनकी प्राप्ति जीव को तभी होती है,
जब सातों कर्मों की
स्थिति एक कोटाकोटी सागरोपम से भी कम हो जाए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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