शास्त्र ही जिनके चक्षु थे, शासन का अनन्य राग
जिनके रोम-रोम में व्याप्त था, शास्त्रों की वफादारी ही जिनका जीवन-मंत्र था, चाहे जैसा प्रलोभन देने पर भी जो सिद्धान्त से तनिक
भी आगे-पीछे होने के लिए तत्पर नहीं थे, जो विरोध के प्रचण्ड तूफानों में भी त्रिकालाबाधित
सिद्धान्तों तथा सनातन सत्यों का ध्वज फहराता रखने वाले थे और वीर शासन के अडिग
सैनानी थे; ऐसे 20वीं सदी में
जैन धर्म संघ के महानायक, श्रमण संस्कृति के उद्धारक,
पोषक, जैन शासन शिरताज, धर्मयोद्धा, व्याख्यान वाचस्पति, दीक्षायुगप्रवर्तक, विशालतपागच्छाधिपति पूज्य आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा को दुनिया में कई लोग अपप्रचार के वशीभूत
झगडालू आचार्य की उपमा से संबोधित करते थे।
एक विरोधी के द्वारा अहमदाबाद में अवमानना (मानहानि)
का मुकदमा किया गया था और उसमें पूज्यपाद गुरुदेव श्री को आरोपी बनाया गया था।
मुकदमा लडने के लिए समाज की ओर से वकीलों का एक पेनल बना। उन्होंने गुरुदेव से
कहा- ‘महाराज, इस केस में प्रमाणरूप जो प्रूफ रीडिंग का पृष्ठ प्रस्तुत किया गया है, इसमें प्रूफ जाँचने
वाले आप हैं, ये अक्षर आपके हैं, ऐसा बताया गया है। कोर्ट पूछेगी कि ये अक्षर आपके हैं? तो आपको केवल यही कहना है कि, ये अक्षर मेरे नहीं
हैं। बाकी का सबकुछ हम संभाल लेंगे।’
गुरुदेव ने कहा- ‘जो अक्षर मेरे ही हैं, उन्हें मेरे नहीं हैं ऐसा मैं कैसे कह सकता हूं? यह तो हो ही नहीं
सकता।’
वकीलों ने कहा- ‘कहना ही पडेगा। अगर नहीं कहेंगे तो दोष सिद्ध होगा
और केस हार जाएंगे।’
गुरुदेव ने कहा- ‘जो भी हो, मुझे स्वीकार्य है, किन्तु असत्य तो मैं बोल ही नहीं सकता।’
खूब चर्चा हुई। अंत में थक कर एक बडे वकील ने कह
दिया, ‘महाराज, आप बडे जिद्दी हैं।’
पू.गुरुदेव ने तत्क्षण कहा- ‘लोग मुझे जिद्दी कहें, इसकी मुझे चिन्ता नहीं
है। लेकिन, साधुता के तौर पर कोई मुझे असत्यवादी-झूठा कहे, यह मुझे स्वीकार्य नहीं है। मैं वीतराग सर्वज्ञ
भगवान महावीर का साधु हूं। साधु कभी असत्य भाषण नहीं करता। यह तो साधु के प्रति
समाज का अटूट विश्वास है। यदि लोगों का यह विश्वास टूट गया तो महा अनर्थ हो जाएगा।
सत्य का आग्रह अगर हठ माना जाए तो वह हठाग्रह मुझे भवान्तर में भी स्वीकार्य है।’
ऐसा हठाग्रह, ऐसी जिद्द प्रशंसनीय है। जगत चाहे उनके लिए कुछ भी
अभिप्राय व्यक्त करे। जिनमें एक दोष खोजा न जा सके, उन सर्वज्ञ वीतराग भगवान महावीर में भी दुनिया दोष
देखती थी और उन्हें भी झगडालू कहती थी। परमात्मा के समय में जन्मा गोशालक और अन्य
लोग परमात्मा को ‘निंदक’ कहा करते थे। सूयगंडांग सूत्र अगर आप लोग सुनें तो इन सब बातों का खयाल आ
सकेगा।
आत्महित के लिए बनाया गया सही और गलत का विभागीकरण, ‘सु’ और ‘कु’ का विवेक, सम्यग् और मिथ्या का
भेद, सन्मार्ग और उन्मार्ग की स्पष्टता; यह सब जिसे झगडा या अशान्तिरूप लगता हो, और ये बातें समझाने
वाले उत्तम पुरुष जिन्हें झगडालू लगते हों उनके कल्याण के लिए कोई मार्ग नहीं है, ना तो कोई उनकी जबान
को पकड सकता है और ना उनके मुंह पर कपडा बांध सकता है। इससे उनके जीवन की सत्यता, सुचिता, जिनाज्ञा के प्रति
उनके सर्वस्व समर्पण और जुझारूपन का पता चलता है। (क्रमश:)
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