गृहिधर्म और साधुधर्म, ऐसे दो प्रकार के धर्म की व्यवस्था की गई है। इन दोनों
प्रकार के धर्म के मूल में जो वस्तु है,
वह सम्यक्त्व है। ‘सम्यक्त्व सहित होकर यदि गृहिधर्म या साधुधर्म की आराधना की
जाए तो ही उस आराधना को सही रूप में धर्म आराधना कहा जा सकता है। ऐसा धर्माराधन ही
आराधक जीव को अपना वास्तविक फल दे सकता है’,
अतः धर्माराधन करने की
इच्छा वाले भाग्यशालियों को सम्यक्त्व के प्रकटीकरण का पुरुषार्थ करते रहना चाहिए
और यह पुरुषार्थ कर्मग्रंथि को भेदने की दिशा में होना चाहिए।
सम्यक्त्व को प्राप्त
पुण्यात्माओं को भी अपने सम्यक्त्व के संरक्षण की सावधानी रखने के साथ ही साथ, दिन-प्रतिदिन सम्यक्त्व शुद्ध बनता जाए, सम्यक्त्व की निर्मलता बनी रहे, ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिए। विषय-कषाय की अनुकूलता के राग ने
और विषय-कषाय की प्रतिकूलता के द्वेष ने ही आत्मा की सचमुच दुर्दशा की है।
विषय-कषाय की अनुकूलता का राग तथा विषय-कषाय की प्रतिकूलता का द्वेष ही सुख का
कारण है, ऐसा मानना और इस मान्यता के अनुसार चलना, यही घाती कर्मों को सुदृढ करने और उन्हें शक्तिशाली बनाने
का प्रधान साधन है।
ऐसा राग-द्वेष चला जाए, उसकी तो बात ही अलग है,
परन्तु ऐसा राग-द्वेष
चला जाए, इसके पहले भी ‘ऐसा राग-द्वेष हेय ही है, छोडने योग्य ही है,
इससे आत्मा को लाभ
नहीं, हानि ही है’,
ऐसा भाव आत्मा में
प्रकट होता है तो इससे घाती कर्मों की जड हिल जाती है और घाती कर्मों से मुक्त
होने का काम प्रारम्भ हो जाता है। ‘यह राग-द्वेष हेय ही है’, ऐसा लगने पर आत्मा में अपूर्वकरण अर्थात् अपूर्व अध्यवसाय
प्रकट होता है और इस अध्यवसाय द्वारा ही कर्मग्रंथि का भेद हो जाता है।
संसार के सुख का राग बुरा ही
है और संसार के सुख के राग के कारण पैदा हुआ द्वेष भी बुरा है। इतना भी यदि आपके
अन्तर्मन में बैठ गया तो आप बहुत भाग्यशाली माने जा सकते हैं। इस राग-द्वेष को
छोडने का उपाय, श्री जिनशासन की आराधना करना
ही है, ऐसा भी आपको लगता है न? ऐसा लगेगा तो श्री जिनशासन की आराधना करने की बात में जो
उल्लास आता है, वह संसार के सुख की किसी
दूसरी बात में नहीं आता है।
संसार के सुख पर आपको राग तो
है, परंतु वह राग तथा उसके योग से पैदा हुआ द्वेष छोडने
योग्य है, ऐसा तो लगता है न? और, आत्मा को वीतरागी बनाने वाले मोक्ष के उपाय पर राग
तो है, परंतु यही राग पुष्ट करने योग्य है और इस राग में से
पैदा हुआ पाप के प्रति द्वेष भी पुष्ट करने योग्य है, ऐसा भी अनुभव होता है न?
इस बात का विचार कर इस
विषय में निर्णय करना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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