पहले ज्ञान प्राप्त करो उसके बाद आचरण करो। अगर
तुम्हें ज्ञान ही नहीं है कि अमुक पदार्थ में जीव है, पानी में जीव है, तो उन जीवों के प्रति दया कैसे जागेगी? करुणा कैसे जागेगी? इसलिए जीवन में क्रिया करने से
पहले विवेक का होना, ज्ञान
का होना जरूरी है। साधना करो, लेकिन
साधना करने से पूर्व, उस
क्रिया को आचरण में लाने से पूर्व, उसका ज्ञान करो। ज्ञान पहले आवश्यक है, उसे क्रिया के पहले जानो।
हमारे पास क्षमता है सोचने-समझने की। बुद्धि है हमारे
पास, लेकिन हम उसका सही
उपयोग नहीं कर रहे हैं। आत्मकल्याण में हम अपनी बुद्धि का प्रयोग नहीं कर रहे हैं।
संसार वृद्धि में, संसार
के कार्यो में हम अपनी बुद्धि का उपयोग करते हैं। वास्तव में स्वयं के साथ स्वयं
की शत्रुता बढा रहे हैं। हम स्वयं अपनी आत्मा के शत्रु बने हुए हैं। गलत मार्ग पर
हमारी आत्मा चलती है तो वह स्वयं की शत्रु बनती है और सही मार्ग पर चलती है तो
स्वयं की मित्र बनती है। लेकिन आज हमारी स्वयं की मनःस्थिति ऐसी बनी हुई है कि हम
सभी अधिकांश रूप से हमारी आत्मा के शत्रु बने हुए हैं।
जब तक हमारा ध्यान आत्मा के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने
वाले इन नाशवान् पदार्थों के प्रति लगा रहेगा, चाहे वह नाशवान पदार्थ शरीर हो या शरीर की कोई अन्य
सम्पदा हो। जब तक हम बाह्य तत्त्व से जुडे हुए हैं, अपने से भिन्न तत्त्व से जुडे हुए हैं, तब तक हम अशान्त ही रहगें। ज्ञानियों
ने कहा है कि द्वैत भाव में शान्ति नहीं होती है। शान्ति होती है अद्वैत भाव में
रहने पर। अद्वैत में हम कब जा सकते हैं जब केवल आत्मा में जाएं। पर की बात ही हम न
करें। पर के प्रति हमारा ध्यान ही न रहे।
अभी हमारी मैत्री जड पदार्थों के साथ है। जड पदार्थ
ही हमें संसार में बांधे हुए हैं। जड पदार्थों के प्रति हमारी आसक्ति होती है और
आसक्ति के कारण जन्म-मरण होता है। हम बार-बार संसार में जन्म लेते हैं। जन्म-मरण
का मूल आधार क्या है? पदार्थों
के प्रति हमारा राग-भाव। यह राग-भाव ही हमारे भीतर आसक्ति पैदा करता है। बन्धन का
कारण क्या है? बन्धन
का कारण भी यह राग-भाव ही है। हमारे भीतर जिस किसी के प्रति आसक्ति रह जाती है, उस रूप में हमारा जन्म पुनः हो
जाता है। और यह जन्म-मरण का चक्कर अनवरत चलता रहता है। यदि आप इस जन्म-मरण के
चक्कर से सर्वथा-सर्वदा के लिए मुक्त होना चाहते हैं, तो कोई भी क्रिया करने से पहले इतना जरूर विचार करिए
कि मैं क्या कर रहा हूं? किसके
लिए और क्यों कर रहा हूं? क्या
जीवन का यही उद्देश्य है? यदि
आप मुक्त होना चाहते हैं तो इसी चिंतन से आगे की राह निकलेगी।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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