क्रोध आता है बाहर से। किसी ने ठोकर लगा दी या दो
अपशब्द कह दिए, तो
हमारे भीतर क्रोध की ज्वाला जलती है। तो क्रोध का मालिक कौन हुआ? आप हुए क्या? अगर आप क्रोध के मालिक होते तो
चाहे जब भी क्रोध कर सकते थे। लेकिन यह तो औपाधिक भाव है, आगन्तुक भाव है। बाहर से आया हुआ भाव है। हमारा स्वयं
का भाव नहीं है। अन्यथा हमें चाहे कोई कितनी ही गालियाँ दे दे अथवा कितनी ही
ठोकरें लग जाए, हम
क्रोधित नहीं होते। उसी तरह से हर्ष या प्रसन्नता भी हमारी अपनी नहीं होती है। वह
भी बाहर से आई हुई होती है।
अहेतुक प्रसन्नता आपके जीवन में है तो आप उसके मालिक
हैं। अन्यथा कोई व्यक्ति आया, उसने
दो शब्द आपकी प्रशंसा के कह दिए, आपकी
तारीफ कर दी तो आप प्रसन्न हो गए। आप गीत गुनगुनाने लगे। आपके मन की वीणा बजने
लगी। वह प्रंशसा आपकी थी क्या? वह
तो आपके गुणों की प्रशंसा थी, आपके
आचरण की प्रशंसा थी। लेकिन फिर भी आप प्रसन्न हो जाते हैं। क्योंकि वह भी आरोपित
है। बाहर से आई हुई वृत्ति है।
हमारी आन्तरिक प्रसन्नता वह होगी कि जब हम अपने आपको
पहचान लें। अपनी अहमियत को जान लें कि मैं स्वयं मूल हूँ। हम अपने आप से, हमारा स्वयं का मूल्य नहीं आंकते
हैं। हम दूसरे के आधार पर अपना मूल्यांकन मानते हैं। दूसरे ने हमें अच्छा कह दिया
तो हम अपने आपको अच्छा मानने लगते हैं। और दूसरे ने अगर हममें दो दुर्गुण बता दिए
तो हम कुपित हो जाते हैं, नाराज
हो जाते हैं, क्रोध
करने लगते हैं। तो हमारा मूल्यांकन दूसरों पर आधारित होता है। जब तक दूसरों पर
हमारा मूल्यांकन आधारित होता ह, तब
तक हमने अपनी स्वयं की चेतना शक्ति को, स्वयं की सत्ता को नहीं समझा है।
हमारा मूल्यांकन दूसरा कोई क्या करे? एक हीरा है एक लाख रुपये का और एक
हीरा है दस लाख रुपये का। यह अन्तर जौहरी की निगाह में ही हो सकता है। सामान्य
व्यक्ति दोनों का अन्तर नहीं समझ पाता है। लेकिन हीरा तो अपने आप में हीरा है।
उसका मूल्यांकन अपनी-अपनी दृष्टि से होता है। लेकिन किसी सामान्य व्यक्ति के मूल्य
नहीं समझने से हीरे की कीमत कम नहीं हो जाती है। ठीक वैसे ही व्यक्ति अपने आप में मूल्यांकन करे। वह
अपने को समझे, स्वयं
को आंके। लेकिन हम स्वयं को नहीं आंकते हैं। दूसरे की दृष्टि से स्वयं को आंकते
हैं कि दूसरा हमें क्या कह रहा है। दूसरों की दृष्टि में हम कैसे हैं, अच्छे हैं अथवा बुरे हैं? यह हमारी बहुत बडी भूल, बहुत बडी भ्रान्ति है कि हम स्वयं
का मूल्यांकन स्वयं नहीं करते और दूसरों के आधार पर अपने को आंकते हैं। हम स्वयं
अपने आलोचक बनेंगे तो ही दुर्गुणों को दूर करने और सद्गुणों को प्राप्त करने का
पुरुषार्थ कर सकेंगे।-आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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