आप अपने मकानों में दीवालों पर नया पेन्ट चाहते हैं, तो पहले दीवालों का पुराना पेन्ट
कुरेद-कुरेद कर साफ करते हैं। अगर कुरेदते नहीं भी हैं, तो उन दीवालों की, मकानों की पहले सफाई करते हैं। शरीर को सजाने के लिए
नहा कर मेल उतारते हैं, उबटन
लगाते हैं, वस्त्र-आभूषण
पहनाते हैं। ठीक उसी प्रकार से आत्मा की सजावट के लिए भी पहले आत्मा की सफाई-धुलाई, कर्मों की निर्जरा की आवश्यकता
होती है। आत्मा पर जो गन्दगी लगी हुई है, जो कचरा है, आत्मा
पर जो मेल जमा हुआ है, वह
मेल मुख्य तौर पर कषायों का मेल है, विकारों का मेल है, वासनाओं
का मेल है। तो हम पहले हमारी आत्मा के ऊपर लगे हुए कषायों, विकारों और वासनाओं के मेल को साफ करें, तभी आत्मा को सजाया जा सकता है, संवारा जा सकता है। यदि हम थोडी और
सूक्ष्म दृष्टि में जाएं तो फिर हमारी आत्मा को सजाने की आवश्यकता नहीं होगी।
सिर्फ हमारी आत्मा पर जो कर्मों का मेल चढा हुआ है, उसे हटाने की, उसे साफ करने भर की आवश्यकता है। आत्मा पर चढा मेल
उतर जाएगा तो, आत्मा
तो सजी-सजाई है। हमारी आत्मा तो अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्द का खजाना है। केवल उस अनन्त ज्ञान पर, जो आवरण आ गए हैं, जो पर्दे पडे हुए हैं, उन आवरणों को, उन पर्दों को हटाने की आवश्यकता
है। यह आवरण हटाने की सफाई अगर हो जाती है तो फिर हमारी आत्मा की चमक सहज ही सामने
आ जाएगी।
सोने को आप साफ करने के लिए क्या करते हैं? उसका मेल उतारते हैं। उसे कुन्दन
बनाते हैं। उसे साफ करने के लिए, आपने
घिस-घिस कर उसका सारा मेल निकाल दिया। क्षार से धो कर, तप में तपाकर उसे निखार दिया तो फिर उसका सारा मेल कट
जाता है, वह विशुद्ध सोना आपके
सामने सहजतया चमकने लगता है। फिर उस सोने को सजाने की आवश्यकता नहीं होती है। आप
सोने को जो विविध-विविध आकार देते हैं, वे विविध आकार उस सोने को सजाने के लिए नहीं, अपितु आप अपनी सजावट के लिए देते हो।
सोना तो सोना है। उस सोने को आप अपनी इच्छानुसार
विविध-विविध प्रकार के आभूषण बनवाकर सजावटी गहने के रूप में बदल देते हैं। तो यह
आपने अपने शौक के लिए उसे अलग-अलग रूप में ढाला। मूल में तो सोना सोना है, वह स्वतः चमकता है। ठीक वैसे ही
हमारी आत्मा अगर विकारों, वासनाओं
और कषायों के मेल से तप, संयम, स्वाध्याय, साधना द्वारा साफ हो जाए, तो फिर उसे सजाने, संवारने की आवश्यकता नहीं होती है, वह तो स्वयं प्रकाशमान है। लेकिन
हम आत्मा की ओर ध्यान कहाँ देते हैं? हम तो सारे बाहरी जड तत्त्वों को सजाने में लगे हैं। जरूरत दिशा बदलनेभर की
है।-आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें